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Sudama Charit Class 8/सुदामा चरित्र काव्यांश का भावार्थ/Sudama Charit Class 8 Explanation in Hindi

 

सुदामा चरित्र काव्यांश का भावार्थ


Explanation And Summary Of Sudama Charit Class 8

Sudama Charit Class 8

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Explanation And Summary Of Sudama Charit Class 8

सुदामा चरित्र काव्यांश का भावार्थ व सारांश

 

सुदामा चरित्रनरोत्तम दास जी की अद्भुत रचना है जिसमें उन्होंने भगवान श्री कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का बहुत खूबसूरती से वर्णन किया है। सुदामा चरित्रमें नरोत्तम दास जी ने भगवान श्री कृष्ण और सुदामा के मिलन , सुदामा की दीनहीन दशा , कृष्ण द्वारा अपने बालसखा (बचपन का दोस्त) की बिना एक शब्द बोले सहायता करना आदि प्रसंगों का बड़े ही सुंदर ढंग वर्णन किया है। 


भगवान श्री कृष्ण और सुदामा दोनों बालसखा है। दोनों बचपन में एक साथ खेले-कूदे , गुरुकुल में भी साथ पढे। लेकिन बड़े होने के बाद भगवान श्री कृष्ण द्वारिका के राजा बने। लेकिन सुदामा बड़ी गरीबी में अपना जीवन बिता रहे थे। सुदामा के आर्थिक हालात इतने खराब थे कि उनके पास न तो पहनने के लिए ढंग के कपड़े थे और न ही खाने को दो वक्त की रोटी। 

सुदामा की पत्नी जानती थी कि द्वारिकाधीश श्री कृष्ण सुदामा के बहुत अच्छे मित्र हैं। इसीलिए सुदामा की पत्नी ने अपनी गरीबी से छुटकारा पाने के लिए सुदामा को जिदकर भगवान श्री कृष्ण के पास सहायता मांगने भेजा । हालाँकि सुदामा श्री कृष्ण से मदद लेना नहीं चाहते थे। 


सुदामा चरित्र काव्यांश का भावार्थ


 सुदामा चरित्र पाठ का सारांश (Summary Of Sudama Charit Class 8)

सुदामा मीलों पैदल चल कर द्वारिका नगरी पहुंचते हैं। लेकिन उनकी दयनीय स्थिति देखकर द्वारपाल उन्हें महल के दरवाजे पर ही रोक देता है। लेकिन सुदामा के यह बताने पर कि उनका नाम सुदामा है और वो कृष्णा से मिलना चाहते हैं।

तब द्वारपाल महल के अंदर जाकर कृष्ण को सुदामा के बारे में बताता हैं। श्री कृष्ण दौड़े -दौड़े चले आते हैं और अपने परम मित्र को महल के अंदर ले जाकर उनका खूब आदर सत्कार करते हैं।श्री कृष्ण सुदामा के पैरों में चुभे हुए कांटों को निकालने वक्त इतने भावुक हो जाते हैं कि वो सुदामा के पैरों को अपने आंसुओं से धो देते हैं। 

आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण सुदामा से उसके बगल में छुपायी हुई पोटली के बारे में पूछते हैं। और मुस्कुराते हुए सुदामा से कहते हैं कि बचपन में भी जब गुरु माता ने उन्हें चने खाने को दिए थे तो वो सारे चने अकेले ही खा गए थे। और आज भी भाभी (सुदामा की पत्नी ) ने उनके लिए जो उपहार भेजा हैं। वह भी उन्हें नहीं दे रहे हैं।

खूब आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण सुदामा को खाली हाथ विदा कर देते हैं। इससे नाराज सुदामा घर लौटते समय कृष्ण के बारे में अनगलत बातें सोचने लगते हैं। वो सोचते हैं कि बचपन में घर- घर जाकर माखन माँग कर खाने वाला मुझे क्या देगा।

लेकिन जब वो अपने गांव पहुंचते हैं तो उन्हें झोपड़ी की जगह आलीशान व भव्य महल दिखाई देता है और महल के द्वार पर सारी सुख सुविधाएं नजर आती है। सच्चाई का एहसास होने वो दयासागर , करणानिधान भगवान श्री कृष्ण के प्रति नतमस्तक होकर उनकी महिमा गाने लगते हैं। 


कविता का भावार्थ / अर्थ (Explanation Of Sudama Charit Class 8 )

सुदामा चरित्रकी शुरुआत पत्नी के कहने पर सुदामा का द्वारिका पैदल पहुंचने से होती है। 


दोहा 1.

सीस पगा न झँगा तन में, प्रभु ! जाने को आहि बसै केहि ग्रामा।

धोती फटी-सी लटी दुपटी, अरु पाँय उपानह को नहिं सामा।

द्वार खड़ो द्धिज दुर्बल एक, रह्मो चकिसों बसुधा अभिरामा।

पूछत दीनदयाल को धाम, बतावत आपनो नाम सुदामा।


भावार्थ /अर्थ 

उपयुक्त पंक्तियों में जब सुदामा द्वारिका में कृष्ण के महल के सामने जा पहुंचे और उन्होंने महल के द्वारपाल से कृष्ण से मिलने की इच्छा जताई। तब द्वारपाल ने महल के अंदर जाकर श्री कृष्ण को बाहर खड़े सुदामा के बारे में कुछ इस तरह बताया।  


द्वारपाल श्री कृष्ण से कहता हैं हे प्रभु !! महल के बाहर एक व्यक्ति बहुत ही दयनीय स्थिति में खड़ा है और आपके बारे में पूछ रहा है। उसके सिर पर न तो पगड़ी है और न ही तन पर कोई झगुला यानि कुर्ता है। उसने यह भी नहीं बताया कि वह किस गांव से पैदल चलकर यहां आया है।


उसने अपने शरीर पर एक फटी सी धोती पहनी हैं और एक मैला सा दुपट्टा (गमछा) ओढ़ा है। यहां तक कि उसके पैरों में जूते या चप्पल भी नहीं हैं।

द्वारपाल आगे कहता हैं। हे प्रभु !! महल के दरवाजे पर एक बहुत ही कमजोर व गरीब ब्राह्मण खड़ा होकर द्वारिका नगरी को बड़ी हैरानी से देख रहा है और आपके बारे में पूछ रहा है। साथ में अपना नाम सुदामा बता रहा है। 


दोहा 2.

ऐसे बेहाल बिवाइन सों , पग कंटक जाल लगे पुनि जोए।

हाय ! महादुख पायो सखा , तुम आए इतै न कितै दनि खोए।

देखि सुदामा की दीन दसा , करुना करिकै करुनानिधि रोए।

पानी परात को हाथ छुयो नहिं , नैनन के जल सों पग धोए।


भावार्थ /अर्थ 

द्वारपाल से सुदामा के विषय में सुनकर श्री कृष्ण दौड़े-दौड़े महल के बाहर आए और उन्होंने सुदामा को गले लगाया और बड़े आदर सत्कार के साथ उन्हें महल के अंदर ले गए। पैदल चलने से सुदामा के पैरों में अनगिनत छाले पड़ चुके थे। और जगह-जगह काँटे भी चुभे हुए थे।


श्री कृष्ण ने सुदामा को प्यार से आसन पर बिठाया और उनके पैरों से एक एक कांटे को खोज कर निकालने लगे। कृष्ण सुदामा से कहते हैं। हे सखा!! तुम इतने दुख में अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे। तुम इतने समय तक मुझसे मिलने क्यों नहीं आए।

उन्होंने अपने बालसखा सुदामा के पैर धोने के लिए परात में पानी मंगवाया था। लेकिन सुदामा की ऐसी दीनहीन दशा देखकर कृष्णा रो पड़े।और उन्होंने परात के पानी को हाथ लगाये बिना ही अपने आंसुओं से ही सुदामा के पैर धो डाले। 

दोहा 3.

कछु भाभी हमको दियो , सो तुम काहे न देत। 

चाँपि पोटरी काँख में , रहे कहो केहि हेतु।। 

भावार्थ /अर्थ 

सुदामा का खूब-खूब आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण उनसे कहते हैं भाभी ने मेरे लिए कुछ तो अवश्य भेजा है।तुमने वह पोटली अपने बगल में क्यों छुपा रखी है। उसे मुझे देते क्यों नहीं हो ? तुम अभी भी वैसे ही हो।

दोहा 4.

आगे चना गुरुमातु दए ते , लए तुम चाबि हमें नहिं दीने। 

स्याम कह्यो मुसकाय सुदामा सों , ‘‘चोरी की बान में हौं जू प्रवीने।। 

पोटरी काँख में चाँपि रहे तुम , खोलत नाहिं सुधा रस भीने। 

पाछिलि बानि अजौ न तजो तुम , तैसई भाभी के तंदुल कीन्हें।।

भावार्थ /अर्थ 

उपरोक्त पंक्तियों में कृष्ण सुदामा को बचपन की याद दिलाते हैं। और कहते हैं हे सखा !! तुम्हें याद है बचपन में जब गुरु माता ने हमें चने खाने को दिए थे। तब तुमने मेरे हिस्से के चने भी चुपके चुपके अकेले ही खा लिए थे। मुझे नहीं दिए थे।

श्याम मुस्कुराते हुए आगे कहते हैं। लगता हैं तुम चोरी करने में काफी प्रवीण हो गए। आज भी भाभी ने मेरे लिए जो पोटली भेजी हैं। उसे तुम अपने बगल में छुपाये बैठे हो। उस भीनी-भीनी सुगंधित वस्तु को तुम मुझे क्यों नहीं दे रहे हो।

लगता हैं तुम्हारी पिछली आदत अभी गई नहीं हैं। इसीलिए गुरु माता के चनों के जैसे ही तुम , भाभी के भेजे व्यजंन भी मुझे नहीं दे रहे हो। 

दोहा 5.

वह पुलकनि , वह उठि मिलनि , वह आदर की बात। 

वह पठवनि गोपल की , कछू न जानी जात।।

घर-घर कर ओड़त फिरे , तनक दही के काज। 

कहा भयो जो अब भयो , हरि को राज-समाज। 

हौं आवत नाहीं हुतौ , वाही पठयो ठेलि।। 

अब कहिहौं समुझाय कै, बहु धन धरौ सकेलि।। 

भावार्थ /अर्थ 

कृष्णा ने सुदामा की खूब आवभगत की। सुदामा का खूब आदर सत्कार करने के बाद कृष्ण ने उन्हें  खाली हाथ विदा कर दिया।

उपरोक्त पंक्तियों में द्वारिका से खाली हाथ घर लौटते सुदामा के मन में आने वाले अनगिनत विचारों का वर्णन किया गया हैं ।

कृष्ण से विदा लेने के बाद सुदामा अपने घर की तरफ पैदल चल पड़े। और मन ही मन सोच रहे थे एक तरफ तो श्री कृष्ण उससे मिलकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्हें इतना आदर , मान सम्मान दिया। और दूसरी तरफ उन्हें खाली हाथ लौटा दिया। सच में गोपाल को समझना किसी के बस की बात नहीं है। 

वो मन ही मन कृष्ण से नाराज हो रहे थे और सोच रहे थे जो व्यक्ति बचपन में जरा सी दही / मक्खन के लिए पूरे गांव के घरों में घूमता फिरता था। उससे मदद की आस लगाना तो बेकार ही है।अब राजा बन कर भी उसने मुझे खाली हाथ लौटा दिया।

सुदामा मन ही मन अपनी पत्नी से भी नाराज होते हैं। और सोचते हैं कि मैं तो यहां आना ही नहीं चाहता था। लेकिन उसने ही मुझे जबरदस्ती यहां भेजा। अब जाकर कहूंगा कि बहुत सारा धन दिया है। अब इसे संभाल कर रख। 

दोहा 6.

वैसोई राज समाज बने , गज बाजि घने मन संभ्रम छायो।

कैधों परयो कहुँ मारग भूलि, कि फैरि कै मैं अब द्वारका आयो।। 

भौन बिलोकिबे को मन लोचत, सोचत ही सब गाँव मझायो। 

पूँछत पाँडे फिरे सब सों, पर झोपरी को कहुँ खोज न पायो।।

भावार्थ /अर्थ 

यह प्रसंग सुदामा के अपने गांव पहुंचने के बाद का है। सुदामा जब अपने गांव पहुंचते हैं तो वो अपने गांव को पहचान ही नहीं पाते हैं क्योंकि उनका गांव भी द्वारिका नगरी जैसा ही सुंदर हो गया था।

उपरोक्त पंक्तियों में बड़े-बड़े भव्य व आलीशान महल , हाथी घोड़े , गाजे-बाजे आदि को देखकर सुदामा को यह भ्रम होता है कि वह रास्ता भूल कर फिर से द्वारका नगरी तो नहीं पहुंचा गये हैं।लेकिन भव्य महलों को देखने की लालसा से वो गांव के अंदर चले जाते हैं।

तब उन्हें समझ में आता है कि यह उनका अपना ही गांव है। गांव का यह बदला रूप देखकर उन्हें अपनी झोपड़ी की चिंता सताने लगती है। फिर वो लोगों से अपनी झोपड़ी के बारे में पूछते हैं और खुद भी अपनी झोपड़ी को ढूंढने लगते हैं। मगर वो अपनी झोपड़ी को नहीं ढूंढ पाते हैं। 

दोहा 7.

कै वह टूटी-सी छानी हती , कहँ कंचन के अब धाम सुहावत।

कै पग में पनही न हती , कहँ लै गजराजहु ठाढे़ महावत।।

भूमि कठोर पै रात कटै, कहँ कोमल सेज पर नींद न आवत।

कै जुरतो नहिं कोदी सवाँप्रभु के परताप तें दाख न भावत।

भावार्थ /अर्थ 

ऐसा माना जाता है सुदामा ने अपनी बगल में जो पोटली छुपा कर रखी थी उसमें चावल थे। श्री कृष्ण ने सुदामा से यह कहकर कि यह उपहार भाभी (सुदामा की पत्नी ) ने उनके लिए भेजा है। वो पोटली सुदामा से ले ली और उसमें से दो मुट्ठी चावल खा लिए थे। और उस दो मुट्ठी के बदले में उन्होंने सुदामा को बिना बताए दो लोकों की संपत्ति , धन-धान्य उपहार स्वरूप दे दी।

यह सच्ची मित्रता का अनोखा उदाहरण है जिसमें विपत्ति में पड़े अपने मित्र की मदद भगवान श्री कृष्ण ने बिना कहे ही कर दी। 

उपरोक्त पंक्तियों में सुदामा को जब इस सच्चाई का पता चलता है कि श्री कृष्ण ने उनके बिना कुछ कहे ही उनकी कितनी बड़ी मदद मदद कर दी है और उन्हें अथाह धन संपत्ति व सुख सुविधा उपहार स्वरूप दे दी है। तब उन्हें श्री कृष्ण की महिमा समझ में आती हैं।

अब वो अपने बालसखा श्रीकृष्ण का गुणगान करने लगते हैं। और सोचते हैं कहां तो मेरे पास एक टूटी सी झोपड़ी होती थी। अब उसकी जगह सोने का महल खड़ा है। मेरे पास पहनने को जूते तक नहीं थे। अब महावत हाथी लेकर सवारी के लिए सामने खड़ा है।

मैं कठोर जमीन पर सोने वाला दलित ब्राह्मण , अब मुझे नर्म बिस्तर पर भी नींद नहीं आती है। और कभी मेरे पास दो वक्त के खाने के लिए चावल भी नहीं होते थे। अब ढेरों मन चाहे व्यंजन उपलब्ध हैं। यह सब द्वारिकाधीश की ही कृपा से संभव हुआ है। उनकी महिमा जितना गाऔं  उतना कम है। 

 

Sudama Charit Class 8

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