हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण | hindi-sahity-ke-aadikaal-ka-naamkrn |
हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण एवं सीमांकन।
हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण : किसी भी विषय के इतिहास को समझने के लिए उसका काल विभाजन अत्यंत अनिवार्य होता है। काल विभाजन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा ऐतिहासिक तथ्यों का सुगमता से अध्ययन किया जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का हिंदी साहित्य का इतिहास इसीलिए सर्वमान्य है क्योंकि उसमें विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों के अनुसार काल विभाजन किया गया है और प्रत्येक काल को एक निश्चित सीमा के अंदर रखा गया है। शुक्ल द्वारा हिंदी साहित्य के इतिहास को चार भागों में विभाजित किया गया है-
हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण | hindi-sahity-ke-aadikaal-ka-naamkrn
आदिकाल (संवत् 1050 से 1375)
भक्ति काल( संवत् 1375 से 1700)
रीति काल (संवत् 1700-1900)
आधुनिक काल ( संवत् 1900 से—)
हिंदी साहित्य के प्रथम काल को आदिकाल नाम दिया गया। आदिकाल की सीमा एवं नामकरण को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। हिंदी भाषा के उद्भव और विकास पर दृष्टिपात करने के पश्चात यह तो स्पष्ट है कि अपभ्रंश हिंदी से पूर्व प्रचलित भाषा थी तथा चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसे ही पुरानी हिंदी कहा है। जब अपभ्रंश भाषा हिंदी के रूप में विकसित हो गई उस समय जो रचनाएं लिखी गई वहीं से हिंदी साहित्य के आरंभिक काल की शुरुआत मानी जा सकती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी का आरंभ संवत 1050 अर्थात् सन् 993 ई. मानते हैं, जब अपभ्रंश भाषा पूर्णता हिंदी के रूप में सक्षम हो रही थी। आचार्य शुक्ल ने आदिकाल की समय सीमा संवत 1050 से संवत 1375 तक मानी है।
हिंदी साहित्य के लेखकों एवं साहित्यिक विचारकों के अनुसार हिंदी साहित्य का नामकरण एवं सीमांकन इस प्रकार है-
प्रथम इतिहास लेखक गार्सा द तासी तथा शिव सिंह सेंगर द्वारा काल विभाजन एवं नामकरण की प्रक्रिया को नहीं अपनाया गया। सर्वप्रथम काल विभाजन का कार्य डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया। उसके बाद के लगभग सभी साहित्य इतिहास लेखकों ने इस प्रक्रिया को अपनाया। आदिकाल को लेकर विभिन्न विचारकों ने निम्नलिखित मत दिए हैं-
1- चारण काल (जॉर्ज ग्रियर्सन) डॉ. ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य के आदिकाल को चारण काल का नाम दिया तथा इसका समय 643 ई. से मानते हैं। परंतु उनका यह नामकरण और समय सीमा स्वीकार्य नहीं हुई क्योंकि इस समय किसी प्रकार की चारण रचनाएं उपलब्ध नहीं होती।
2- प्रारंभिक या आरंभिक काल (मिश्र बंधु) मिश्र बंधुओं ने आदिकाल को प्रारंभिक या आरंभिक काल की संज्ञा दी तथा उन्होंने इसकी समय सीमा 643 ई. से 1387 ई. तक स्वीकार की है। इनके नामकरण का आधार यह है कि यह हिंदी साहित्य का आरंभिक काल है। उनकी इस प्रस्तावना के पीछे कोई विशेष तर्क नहीं था। अतः इस सामान्य प्रवृत्ति के आधार पर किए गए इस नामकरण को भी स्वीकार्यता नहीं मिली।
3- वीरगाथा काल (आचार्य रामचंद्र शुक्ल) आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल को वीरगाथा काल नाम दिया तथा इसकी समय सीमा संवत् 1050 (सन् 993 ई.) से संवत् 1375 (सन् 1318 ई.) स्वीकार की। शुक्ल ने महाराजा भोज से लेकर हम्मीर देव के समय से कुछ पीछे तक के समय को आदिकाल में रखा है। उन्होंने इस नामकरण के पीछे यह तर्क स्थापित किया कि इस समय दरबारी साहित्य का समय था। प्रत्येक राजा महाराजा के दरबार में आश्रय प्राप्त कवियों ने अपने आश्रय दाताओं की पराक्रम पूर्ण गाथाओं तथा चरित्रों का वर्णन किया है। वीर रस से पूर्ण इन रचनाओं को रासो साहित्य का नाम दिया जाता है। शुक्ला ने जिन रचनाओं के आधार पर इस काल का नामकरण किया उन 12 रचनाओं का परिचय इस प्रकार है-
- विजयपाल रासो (नल्लसिंह कृत-सं.1355)
- हम्मीर रासो (शांगधर कृत-सं.1357)
- कीर्तिलता (विद्यापति-सं.1460)
- कीर्तिपताका (विद्यापति-सं.1460)
- खुमाण रासो (दलपतिविजय-सं.1180)<
- बीसलदेव रासो (नरपति नाल्ह-सं.1212)
- पृथ्वीराज रासो (चंद बरदाई-सं.1225-1249)
- जयचंद्र प्रकाश (भट्ट केदार-सं. 1225)
- जयमयंक जस चंद्रिका (मधुकर कवि-सं.1240)
- परमाल रासो (जगनिक कवि-सं.1230)
- खुसरो की पहेलियाँ (अमीर खुसरो-सं.1350)
- विद्यापति की पदावली (विद्यापति-सं.1460)
आचार्य शुक्ल के इस मत का मोती लाल मेनारिया और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे विद्वानों ने विरोध किया। आचार्य द्विवेदी ने शुक्ल द्वारा दिए गए ग्रंथों को अप्रमाणिक सिद्ध किया तथा यह मत भी स्थापित किया कि इस समय केवल वीरता पू्र्ण ही नहीं बल्कि धार्मिक एवं अन्य प्रवृत्तियों से संबंधित रचनाएं भी लिखी गई है जो साहित्य में अपनी विशेष भूमिका रखती हैं। अतः वीरगाथा काल नाम भी पूर्ण रूप से मान्यता प्राप्त नहीं कर सका, परंतु इसकी समय सीमा सर्वमान्य हो गई।
4- सिद्ध सामंत काल (राहुल सांकृत्यायन) आदिकाल का नामकरण करने वाले विद्वानों में राहुल सांकृत्यायन का नाम भी प्रसिद्ध है। उन्होंने इस कार्य को सिद्ध सामंत काल कहा है तथा 8वीं से 13वीं शताब्दी तक इसकी समय सीमा स्वीकार की है। इस नामकरण के पीछे उन्होंने यह तर्क दिया कि इस युग में मुख्यता दो तरह की प्रवृतियां शामिल थी- सिद्धों की रचनाएं तथा सामंतों की स्तुति अर्थात बौद्ध धर्म के अनुयाई सिद्ध इसमें अपनी रचनाओं का प्रचार प्रसार कर रहे थे तो वहीं दूसरी ओर राज्य आश्रित कवि अपने आश्रय दाता सामंतों की प्रशंसा एवं स्तुति परक रचनाएं रच रहे थे। विद्वानों द्वारा इस नाम को भी मान्यता नहीं दी गई।
5- बीजवपन काल (महावीर प्रसाद द्विवेदी) महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को बीजवपन काल की संज्ञा दी। उनका मानना था कि इस काल में हिंदी की साहित्यिक रचनाओं का बीज बोया जा रहा था। परंतु यह नाम भी मान्य नहीं हुआ क्योंकि किस काल में अनेक प्रौढ़ रचनाएं भी लिखी गई है।
6- संधि एवं चारण काल ( डॉ. रामकुमार वर्मा) रामकुमार वर्मा ने अपने साहित्य इतिहास में आदिकाल को दो भागों में विभाजित किया संधि एवं चारण काल। इस नामकरण के पीछे उन्होंने तर्क दिया कि एक तो यह युग हिंदी और अपभ्रंश की संधि का युग है दूसरे इस युग के सभी कवि दरबारी कवि हैं जो अपने आश्रय दाताओं की प्रशंसा पूर्ण रचनाएं कर रहे हैं। यह कवि चारण कवि हैं, इसीलिए यह युग चारण काल है। विद्वानों द्वारा इस नाम को भी स्वीकार नहीं किया गया।
7- वीरकाल (विश्वनाथ प्रसाद) विश्वनाथ प्रसाद ने शुक्ल के नामकरण को ही आधार मानते हुए इस युग को वीर काल का नाम दिया परंतु इसे भी मान्य नहीं किया गया।
8- अपभ्रंश काल (चंद्रधर शर्मा गुलेरी) गुलेरी ने भाषा के आधार पर इस काल को अपभ्रंश काल नाम दिया। परंतु भाषागत प्रवृत्ति के कारण किसी युग का नामकरण नहीं किया जा सकता क्योंकि उसमें अन्य प्रवृतियां भी शामिल होती है। अतः इस तर्क को भी मान्यता नहीं मिली।
9- आदिकाल (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सभी प्रवृत्तियों का समाहार करते हुए इस काल को आदि काल की संज्ञा दी तथा इसकी समय सीमा संवत 1000 से संवत 1400 तक स्वीकार की। उन्होंने इस नामकरण के पीछे यह तर्क दिया कि आदिकाल प्रारंभ का सूचक ना होकर परंपरा के विकास का सूचक है तथा इसमें वीरता पूर्ण, धार्मिक, सांस्कृतिक, शृंगारिक, भक्ति परक तथा मनोरंजनात्मक कृतियों का भी समावेश है। विभिन्न दृष्टियों से यह काल परंपरा प्रेमी, रूढ़ि ग्रस्त एवं सचेत कवियों का काल है। इस नाम में हिंदी के विभिन्न काव्य रूपों तथा भाषा के विकसित होने दोनों ही बातें शामिल हो जाती है। अतः हजारी प्रसाद द्विवेदी के इस नामकरण को सर्व मान्यता प्राप्त हुई।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य का प्रथम काल आदिकाल है जिसका नामकरण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा दिया गया तथा इसकी समय सीमा संवत 1050 से संवत 1375 तक है जो आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा निर्धारित की गई। हिंदी साहित्य की शुरुआत के साथ-साथ यह काल नवीन चेतना एवं ओजस्विता का काल है।
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