मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना | Maithilisharan Gupt Ki Rashtriya Chetna |
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय चेतना | Maithilisharan Gupt Ki Rashtriya Chetna
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त द्विवेदी युग के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हैं । उनके काव्य में
द्विवेदी युगीन समाज सुधार की भावना, राष्ट्रीय भावना, जन-जागरण की
प्रवृत्ति एवं युगबोध विद्यमान है । मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय
चेतना न केवल द्विवेदी युग बल्कि सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान
रखती है । संभवतः इसी कारण उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि प्रदान की गई
।
गुप्त जी ने गुरुदेव रवींद्रनाथ
टैगोर की मानवतावाद से प्रभावित होकर करुणा, त्याग आदि के गीत गाए और गांधीवाद
का प्रभाव ग्रहण करके सांप्रदायिक एकता, सत्य और अहिंसा का प्रतिपादन किया ।
मैथिलीशरण गुप्त की रचना ‘भारत-भारती’ सन 1912 में प्रकाशित हुई । इसने गुप्त जी
को खड़ी बोली के लोकप्रिय कवि के रूप में पहचान दिलाई । ‘भारत-भारती’ ने राष्ट्रीय-भावना को जागृत करने में महत्वपूर्ण अभिनीत
की । इस काव्य-रचना में भारत की पराधीनता की बेड़ियाँ तोड़ने
का आह्वान किया गया है ।
मैथिलीशरण गुप्त ने ‘भारत-भारती’ के माध्यम से राष्ट्रीयता का जो शंखनाद
किया बाद में उसे माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, रामधारी सिंह
‘दिनकर’ और सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने अनंत में गुंजरित कर दिया । मैथिलीशरण गुप्त
के प्रयासों के कारण राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय चेतना
हिंदी कविता के प्रमुख विषय बन गए ।
जिस समय भारत का स्वतंत्रता आंदोलन
अपने पूरे जोर पर था उस समय गुप्त जी ने अपनी काव्य रचना ‘भारत -भारती’ लिखकर भारतीय जनमानस के सम्मुख
उसके अतीत, वर्तमान और भविष्य का ऐसा सुंदर चित्रण प्रस्तुत किया कि
नवयुवक अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने लगे । ‘भारत-भारती’ के कारण ही गुप्त जी राष्ट्रकवि ( 1936 ) बने और इसी पुस्तक के कारण उन्हें संसद-सदस्य के रूप में मनोनीत किया
गया और पद्मभूषण (1954 ) से सुशोभित किया गया ।
भारतेंदु युग में राष्ट्रभक्ति की
भावना राजभक्ति और देशभक्ति के साथ-साथ चलती रही थी क्योंकि उस समय तक अंग्रेजों
का शासन अपने चरमोत्कर्ष पर था और उससे मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती थी फिर
भी तत्कालीन शासन-व्यवस्था के प्रति असंतोष भारतेंदु साहित्य में आने लगा था । द्विवेदी युग के
काव्य में मातृभूमि के प्रति प्रेम की भावना अत्यधिक मुखरित होकर सामने आने लगी थी
। द्विवेदी युग में राष्ट्रप्रेम की यह भावना मुख्य रूप से
प्रबंध-काव्यों के माध्यम से अभिव्यक्त हुई है जिनमें प्राय: प्राचीन कथानक को
कल्पना के समवेश से नवीन रूप प्रदान करके प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । यही कारण है कि
मैथिलीशरण गुप्त ने तुलसीकृत ‘रामचरितमानस’ के आधार पर रचित महाकाव्य ‘साकेत’ का नामकरण कथानायक राम के नाम पर न करके उनकी मातृभूमि
साकेत ( अयोध्या ) के नाम पर किया है ।
1930 ईस्वी में महात्मा गांधी के भारत में सक्रिय राजनीति में
प्रवेश करने के पश्चात स्वतंत्रता आंदोलन की रूपरेखा में व्यापक बदलाव आया । राष्ट्रीय
आंदोलन का प्रसार अब कुलीन वर्ग तक सीमित नहीं रहा बल्कि वह झोपड़ियों तक फैलने
लगा । विभिन्न भाषाओं के कवि भी इससे अछूते नहीं रहे और
उन्होंने अपनी कविताओं में राष्ट्रीय भावना को स्थान दिया । इन कवियों ने न
केवल लोगों को जागृत करने के लिए कविताएं लिखी बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय
भाग भी लिया और कई बार जेल भी गए । मैथिलीशरण गुप्त का नाम ऐसे कवियों
में प्रमुखता से लिया जा सकता है ।
भारतीय संस्कृति की जितनी व्यापक
तथा प्रभावशाली अभिव्यक्ति मैथिलीशरण गुप्त के काव्य में मिलती है उतनी अन्य
किसी आधुनिक कवि की काव्य में दुर्लभ है । सांस्कृतिक कवि की दृष्टि से
मैथिलीशरण गुप्त वाल्मीकि, व्यास और तुलसीदास की परंपरा में आते हैं । राष्ट्रवादी
भावना की दृष्टिकोण से मैथिलीशरण गुप्त रवीन्द्रनाथ, इकबाल और नजरुल इस्लाम की परंपरा
के कवि हैं । संभवतः इसी कारण उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से अभिषिक्त
किया गया ।
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना ( Maithilisharan Gupt Ki Rashtriya Bhavna ) उच्च कोटि की थी । उनका संपूर्ण साहित्य भारत की
सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है । उन्होंने भारत को एक इकाई के रूप
में देखा । उनकी दृष्टि में हिंदुओं का अर्थ है – हिंदुस्तान में
रहने वाला व भारत माता के चरणों में सर्वस्व समर्पित करने वाला । गुप्त जी ने
स्पष्ट शब्दों में गौरव के साथ इस बात की घोषणा की है –
“हम हैं हिंदू की संतान
जिए हमारा हिंदुस्तान ।”
मैथिलीशरण गुप्त जी धर्म के आधार पर अच्छे बुरे का निर्णय नहीं करते । उनकी दृष्टि में
मानवता ही किसी व्यक्ति के आंकलन की सबसे बड़ी कसौटी है —
“हिंदू हो या मुसलमान हो नीच रहेगा फिर भी नीच ।
मनुष्यत्व सबसे ऊँचा है, मान्य मही-मंडल के बीच ।।”
भारतीय नवयुवकों को अपने अधिकारों
के प्रति जागरूक रहने के लिए प्रेरित करते हुए गुप्त जी लिखते हैं —
“अधिकार खोकर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है ।”
गुप्त जी अपने काव्य में लोगों को
प्रजातंत्र के वास्तविक अर्थ को बताते हुए उन्हें प्रजातंत्र प्राप्ति के लिए
उत्साहित करते हैं —
“राजा प्रजा का पात्र है, वह एक प्रतिनिधि मात्र है ।
यदि वह प्रजा पालक नहीं, तो त्याज्य है ।”
हम दूसरा राजा चुनें, जो सब तरह सबकी सुने ।
कारण, प्रजा का ही असल में राज्य है ।”
गुप्त जी अपने साहित्य में
साहित्य-कर्म के वास्तविक उद्देश्य को प्रकट करते हुए लिखते हैं —
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए ।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म
होना चाहिए ।”
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय भावना में सामाजिक सरोकार भी सम्मिलित हैं । वे सभी सामाजिक
रूढ़ियों को दूर करके एक स्वस्थ समाज का निर्माण करना चाहते हैं । उनका मानना है
कि आपसी वैमनस्य को दूर करके ही राष्ट्रीय एकता के लक्ष्य को पाया जा सकता है । सामाजिक
कुरीतियों को दूर करने और पारस्परिक सहयोग बनाए रखने के लिए समाज के लोगों को
प्रेरित करते हुए मैथिलीशरण गुप्त जी लिखते हैं —
“जग को दिखा दो यह कि अब भी हम सजीव सशक्त हैं
रखते अभी तक नाड़ियों में
पूर्वजों का रक्त हैं ।”
राष्ट्रीय भावना उत्पन्न करने के
लिए मैथिलीशरण गुप्त की हिंदी भाषा के राष्ट्रभाषा होने
की पैरवी करते हैं ।
उनकी मतानुसार एक ऐसी भाषा होना
अनिवार्य है जिससे संपूर्ण देश के लोगों में पारस्परिक विचार विनिमय हो सके ।
गुप्त जी ने ‘भारत-भारती’ में विदेशी शासन से मुक्ति की प्रेरणा दी है । समूचे हिंदी
भाषी प्रदेश को उद्बोधन और प्रेरित करने में इस पुस्तक ने प्रशंसनीय कार्य किया । ‘भारत-भारती’ के प्रकाशन से ही गुप्त को जनमानस में राष्ट्रभक्ति की
भावना जगाने वाले सबसे शक्तिशाली कवि के रूप में प्रतिष्ठा मिली । वे सच्चे अर्थों
में राष्ट्रकवि थे ।
मैथिलीशरण गुप्त ने अपने प्रबंध काव्यों में विशुद्ध भारतीय पर्यावरण से उदात्त
चरित्रों का का निर्माण किया है । उनके काव्य आरंभ से अंत तक प्रेरणा
देने वाले काव्य हैं ।
उनके काव्य में पात्रों के
व्यक्तिगत गुणों में देश-प्रेम के गुण को प्रमुखता से दिखाया गया है । वे अपने साहित्य
के माध्यम से व्यक्तिगत विकास के स्थान पर सामूहिक विकास पर बल देते हैं ।
गुप्त जी के अन्य काव्य ग्रंथों
में भी राष्ट्रप्रेम और देश के प्रति त्याग व बलिदान की भावना दिखाई देती है । ‘स्वदेश संगीत’ में उन्होंने परतंत्रता की घोर निंदा करते हुए उसे संपूर्ण भारत के
लिए अभिशाप माना है ।
कई स्थानों पर परतंत्र व्यक्ति को
मृत मानते हुए उसका तिरस्कार किया गया है ताकि वह पराधीनता के बंधनों को तोड़ने के
लिए उद्धत हो सके । ‘अनघ’ में भी राष्ट्रप्रेम का स्वर सुनाई देता है जिसमें गुप्त जी गांधीवाद
से प्रभावित होकर सत्याग्रह की प्रेरणा देते हैं । ‘वक संहार’ में उन्होंने अन्याय के दमन की प्रेरणा दी है तो ‘साकेत’ में स्वावलंबन का पाठ पढ़ाया है । ‘यशोधरा’,
‘विष्णुप्रिया’ और ‘द्वापर’ में भी गुप्त जी ने राष्ट्रीयता की भावना को अभिव्यक्ति
दी है । ‘वैतालिकी’ में उन्होंने भारतवासियों में स्वाभिमान जगाने का प्रयास किया है ।
द्विवेदी युग की देशभक्ति की भावना
का स्वरूप भारतेंदु युगीन देश प्रेम की भावना के स्वरूप से कुछ भिन्न है । द्विवेदी युगीन
देशभक्ति को पहले की अपेक्षा कहीं अधिक विकसित तथा व्यापक कहा जा सकता है । द्विवेदी युग के
काव्य में देश की दुर्दशा का वर्णन करके भारत की प्राचीन संस्कृति और इतिहास के
उज्ज्वल पक्षों का वर्णन किया गया है तथा देशवासियों की हीन-भावना का निराकरण करके
उनमें आत्म-गौरव की भावना को जागृत करने का प्रयास किया गया है । ऐसा करने के लिए
भारतीय इतिहास के पौराणिक और ऐतिहासिक महापुरुषों की प्रशस्ति का साहित्य लिखा गया
। गुप्त जी के साहित्य में यह प्रवृत्ति सबसे अधिक दिखाई
देती है ।
द्विवेदी युग की राष्ट्रीय चेतना
में जाति, धर्म,
संप्रदाय आदि की भावना से ऊपर उठकर
समस्त भारत को एक मानकर उसकी प्रशस्ति का गान किया गया है । ‘हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई ; आपस में सब
भाई-भाई’ की चेतना ही इस युग की प्रधान चेतना कही जा सकती है जिसका श्रेय गुप्त जी
को जाता है ।
वस्तुतः गुप्त जी का संपूर्ण
साहित्य राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत है । उनका साहित्य जन-सामान्य के
साथ-साथ राष्ट्रीय आंदोलन के बड़े नेताओं को भी निरंतर प्रेरित करता रहा । उनके साहित्य की
इसी विशेषता के कारण सन 1936 में गांधी जी ने काशी में उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि
से विभूषित किया ।
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय
चेतना के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए डॉ उमाकांत लिखते हैं —
“भारतीय संस्कृति के प्रवक्ता होने के साथ-साथ मैथिलीशरण जी प्रसिद्ध
राष्ट्रीय कवि भी हैं । उनकी प्रायः सभी रचनाएँ
राष्ट्रीयता से ओतप्रोत हैं ।”
मैथिलीशरण गुप्त की राष्ट्रीय
चेतना के सम्बन्ध में प्रो हरिचरण शर्मा जी लिखते हैं —
“उन्होंने क्रियात्मक और व्यापक भूमिका पर भारतीय जनजीवन को श्रृंगार
की वासनामूलक गलियों से निकालने, पराधीनता की श्रृंखलाओं को
तोड़ने एवं निष्क्रियता एवं जड़ता को समाप्त करते हुए राष्ट्रीय जागृति की पुनीत
गंगा में अभिषेक का आत्मीयतायुक्त आमंत्रण दिया है । गुप्त जी की राष्ट्रीयता
गांधीवादी भूमिका पर विकसित होकर तो और भी अधिक व्यापक हो गई है ।”
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