भक्ति आंदोलन के प्रमुख कारण
भक्ति आंदोलन के प्रमुख कारण : प्राचीन काल से ही मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति के लिए तीन मार्गों का ज्ञान दिया गया है। यह मार्ग है कर्म मार्ग, ज्ञान मार्ग और भक्ति मार्ग। धर्म और ज्ञान का अनुसरण ही भक्ति मार्ग का प्रतीक है। भक्ति का अस्तित्व भारत में प्राचीन काल से ही है। अपने आराध्य देव के प्रति श्रद्धा एवं आस्था का भाव ही भक्ति कहलाता है। वैदिक काल से ही भक्ति का वर्णन अनेक स्थानों पर मिलता है जिसका अर्थ है, भगवान की सेवा करना। भक्ति शब्द का अर्थ है- अनुराग, पूजा, उपासना तथा विभाजन। भक्ति शब्द भज् धातु से बना है जिसका अर्थ है भजना, स्मरण करना या ध्यान करना। श्रद्धा भाव से भगवान की शरण प्राप्त करना, बिना किसी स्वार्थ के भगवान से प्रेम करना और बिना किसी शर्त के आत्मसमर्पण करना ही भक्ति कहलाता है।
भक्ति आंदोलन के प्रमुख कारण
भारत में भक्ति आंदोलन अत्यधिक प्राचीन है। इसके उद्गम को हम वेदों में देख सकते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने जिस श्रद्धा और अनुराग के साथ सूर्य, अग्नि, रूद्र, वरुण आदि देवताओं पर ऋचाएं लिखी हैं, वह उनकी भक्ति भावना को ही प्रमाणित करती है। उपनिषद साहित्य में यद्यपि निर्गुण भजन की विवेचना की गई है लेकिन उसमें ज्ञान के साथ है राग तत्व का भी मिश्रण कर दिया गया है। महाभारत तक आते-आते वैष्णव भक्ति का समुचित विकास हो चुका था और विष्णु को भगवान के रूप में प्रतिष्ठा मिल गई थी। श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म का सर्वश्रेष्ठ समन्वय देखा जा सकता है। हिंदी साहित्य में भक्ति काल के उदय के बारे में विचार करने से पहले विद्वानों द्वारा दी गई भक्ति शब्द की परिभाषा पर विचार करना अनिवार्य है जो इस प्रकार है-
नारद भक्ति सूत्र के अनुसार, “पूजादि में अनुराग होना भक्ति है।”
शांडिल्य भक्ति सूत्र के अनुसार, “ईश्वर के प्रति अतिशय अनुरक्ति को ही भक्ति कहा गया है।”
श्रीमद् भागवत के अनुसार, ‘मनुष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ धर्म नहीं है जिसके द्वारा भगवान कृष्ण में भक्ति हो। भक्ति ऐसी है जिसमें किसी प्रकार की इच्छा ना हो और जो नित्य निरंतर बनी रहे।’
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।” वह आगे लिखते हैं, “धर्म की रसात्मक अनुभूति ही भक्ति है।”
उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि जब धर्म को बिना किसी आडंबर और बुद्धि के सहारे न निभा कर उसमें भावना और हृदय का समावेश कर लिया जाता है तब भक्ति की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार की भक्ति के द्वारा भक्त स्वयं भी आनंदित होता है और दूसरों को भी आनंदित करता है।
भक्ति काल का उद्भव और विकास
हिंदी साहित्य में भक्तिकाल को साहित्य का स्वर्ण युग कहा गया है। इसकी समय सीमा संवत् 1375 से संवत् 1700 तक स्वीकार की गई है। भक्ति की इस अविरल परंपरा के उद्भव और विकास को लेकर विद्वानों में अनेक मत प्रचलित हैं। किसी भी युग के उद्भव में तत्कालीन परिस्थितियों अत्यधिक महत्व रखती हैं। भक्ति काल के उदय में भी उस समय की सामाजिक व धार्मिक परिस्थितियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूरा देश इस समय विदेशी आक्रमणों से आक्रांत था और विशेष रूप से इस्लाम धर्म का प्रचार व प्रसार जोरों पर था। हिंदू धर्म का ह्रास हो रहा था और लोग धार्मिक कट्टरता के कारण इस्लाम धर्म अपना रहे थे। ऐसे समय में देश में भक्ति आंदोलन का उदय हुआ। भक्ति की लहर दक्षिण भारत से विकसित हुई। इसमें आलवार भक्तों ने अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भक्ति की इस लहर को रामानंद द्वारा उत्तर भारत में लाया गया।
कबीर के शब्दों में, “भक्ति द्रविड़ उपजी लाए रामानंद”। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, “भक्ति आंदोलन के उदय एवं विकास का श्रेय दक्षिण की आलवार भक्तों को दिया जाना चाहिए। इनकी संख्या बारह मानी गई है। लेकिन यहां पर यह बता देना भी आवश्यक है कि तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारण भी भक्ति के उद्भव तथा विकास के लिए उत्तरदाई है।इससे भक्ति भावना का आगमन दक्षिण से हुआ है लेकिन भक्ति का प्रवाह वैदिक युग से चला आ रहा था। फिर यहां राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक तथा धार्मिक परिस्थितियों ने इसे बल प्रदान किया।”
हिंदी में भक्ति काल का उद्भव कैसे हुआ इस विषय को लेकर तीन प्रकार के मत सामने आते हैं-
- प्रथम वर्ग में वो विद्वान आते हैं जो यह मानते हैं कि भक्ति का उद्भव विदेशों में हुआ तथा हिंदी में भक्ति काल ईसाई मत अथवा इस्लाम की देन है।
- दूसरा वर्ग उन विद्वानों का है जो व्यक्ति को पराजित निराश हताश जाति की स्वाभाविक प्रतिक्रिया स्वीकार करते हैं।
- तीसरा वर्ग उन विद्वानों का है जो कि भक्ति काल को भारत मे चल रहे धार्मिक आंदोलनों का सहज विकास मानते हैं।
इस प्रकार उत्तर भारत में भक्ति के उद्भव एवं विकास को लेकर विद्वानों ने निम्नलिखित मत दिए हैं-
- जॉर्ज ग्रियर्सन का मानना है कि तीसरी चौथी शताब्दी में मद्रास के पास इसाई पादरी उतरे थे उन्हीं के प्रभाव से दक्षिण में भक्ति का प्रचार हुआ।
- ताराचंद के अनुसार भक्ति काल का उदय ‘अरबों की देन’ है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति आंदोलन को पराजित मनोवृति का परिणाम माना है। वे कहते हैं कि उस समय मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा से हिंदू धर्म का ह्रास हुआ और उनके भीतर आजादी से संघर्ष करने वाली शक्तियां अत्यंत क्षीण हो गई। जनता निराश और हताश थी उन्हें आशा की कोई किरण दिखाई नहीं दी। इसलिए उन्होंने स्वयं को ईश्वर के भरोसे छोड़ दिया। शुक्ल के शब्दों मे देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू-जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिये वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देवमंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुसलिम-साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिये भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?
- बाबू गुलाब राय ने भी शुक्ल के मत का ही अनुसरण किया है वह कहते हैं, “मनोवैज्ञानिक तिथि के अनुसार हार की मनोवृति में दो बातें संभव है या तो अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता दिखाना या भोग विलास में पढ़कर हार को भूल जाना। भक्ति काल में लोगों में प्रथम प्रकार की प्रवृत्ति पाई गई।”
- हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार, ‘मैं तो जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहना उचित नहीं है कि इस काल में अधिक अत्याचार हुए।भारत की पराधीनता का इतिहास शोषण एवं अत्याचारों का इतिहास है।भक्तिकाल तो अपेक्षाकृत उदार मुगल बादशाहों का काल रहा है।मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह उचित नहीं लगता कि हताश निराश पीड़ित तथा दलित जाति ने ऐसा सुंदर मधुर एवं उत्साहवर्धक साहित्य लिखा होगा। जब गर्दन पर तलवार तनी हो तो मुख से आह या कराह निकलती है सूर और मीरा के गीत नहीं फूटते।गुलाब राय का यह कहना है कि अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए हिंदू मानस इस ओर झुका जो उचित नहीं है। मुसलमान कवियों ने भी भक्ति साहित्य में योगदान दिया। वे किस के सम्मुख अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर रहे थे? निश्चय ही इस दृष्टि से विश्व का साहित्य निराश हताश पराजित जाति का साहित्य नहीं है।साहित्य की दृष्टि से भी शुक्ल जी का मत ठीक नहीं लगता क्योंकि भक्ति कालीन साहित्य आशा और उत्साह का साहित्य है। इसे साहित्य ने जातीय जीवन को एक नई दिशा दी है।
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने यह भी सिद्ध किया की भक्ति का उद्भव हेतु एवं पुराणों में ही हो गया था।आलवर संत परंपरा में सगुण और निर्गुण भक्ति विकसित हुई। वहीं से चौदहवीं शताब्दी में रामानंद तथा वल्लभाचार्य जैसे भक्त उत्तर की ओर आने लगे। चैतन्य गोस्वामी के शिष्य रूप गोस्वामी भी काशी में प्रचार के लिए आ गए। महाराष्ट्र में संत परंपरा ज्ञानेश्वर एकनाथ तुकाराम तथा रामदास के माध्यम से चल रही थी। इस प्रकार उत्तर-दक्षिण में एक साथ भक्ति का विकास हो रहा था।
इस प्रकार कहा जा सकता है किसमग्रतः भक्ति आंदोलन का उदय ग्रियर्सन व ताराचंद के लिए बाहय प्रभाव, शुक्ल के लिए बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया तथा द्विवेदी के लिए भारतीय परंपरा का स्वतः स्फूर्त विकास था।भक्ति आन्दोलन मध्यकालीन भारत के सांस्कृतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। इस काल में सामाजिक-धार्मिक सुधारकों की धारा द्वारा समाज विभिन्न तरह से भगवान की भक्ति का प्रचार-प्रसार किया गया। सिख धर्म के उद्भव में भक्ति आन्दोलन की महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। भक्ति के उद्भव एवं विकास के समय जो कुछ भी भारतीय साहित्य, भारतीय संस्कृति तथा इतिहास को प्राप्त हुआ, वह स्वयं में अद्भुत, अनुपम एवं दुर्लभ है।
अन्ततः हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में कह सकते है, ‘समूचे भारतीय इतिहास में यह अपने तरह का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है। भक्ति का यह नया इतिहास मनुष्य जीवन के एक निश्चित लक्ष्य और आदर्श को लेकर चला। यह लक्ष्य है भगवद्भक्ति, आदर्श है शुद्ध सात्विक जीवन और साधन है भगवान के निर्मल चरित्र और सरस लीलाओं का गान।
निष्कर्ष रुप में कहा जा सकता है कि भक्ति आंदोलन के संतों ने लोगों के सामने कर्मकांडों से मुक्त जीवन का ऐसा लक्ष्य रखा, जिसमें ब्राह्मणों द्वारा लोगों के शोषण का कोई स्थान नहीं था । भक्ति आंदोलन के कई संतों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया, जिससे इन समुदायों के मध्य सहिष्णुता और सद्भाव की स्थापना हुई। भक्तिकालीन संतों ने क्षेत्रीय भाषों की उन्नति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। हिंदी, पंजाबी, तेलुगू, कन्नड़, बंगला आदि भाषाओं में इन्होंने अपनी भक्तिपरक रचनाएँ कीं। भक्ति आंदोलन के प्रभाव से जाति-बंधन की जटिलता कुछ हद तक समाप्त हुई। फलस्वरूप दलित व निम्न वर्ग के लोगों में भी आत्मसम्मान की भावना जागी। भक्तिकालीन आंदोलन ने कर्मकांड रहित समतामूलक समाज की स्थपाना के लिये आधार तैयार किया। भक्ति आंदोलन से हिन्दू-मुस्लिम सभ्यताओं का संपर्क हुआ और दोनों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। भक्तिमार्गी संतों ने समता का प्रचार किया और सभी धर्मों के लोगों की आध्यात्मिक और नैतिक उन्नति के लिये प्रयास किये।
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