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Diwedi yugin kavay dhara ki pramukh visheshtayen/Hindi Sahity ka itihaas/adhunik hindi sahity/द्विवेदी युगीन हिंदी काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएं/

 

Diwedi yugin kavay dhara ki pramukh visheshtayen

द्विवेदी युगीन हिंदी काव्यधारा का संक्षिप्त परिचय देते हुए उसकी प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए- 

(Diwedi yugin kavay dhara ki pramukh visheshtayen)



द्विवेदी युगीन हिंदी काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएं-

 द्विवेदी युगीन हिंदी काव्य धारा को भारतेंदु युग के काव्य का विकसित रूप कहा जा सकता है। इस युग में खड़ी बोली को काव्य की भाषा बनाना एक महान सफलता थी। इस महान कार्य में सबसे अधिक योगदान महावीर प्रसाद द्विवेदी का था। उन्होंने अपने अथक प्रयासों से खड़ी बोली को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। महावीर प्रसाद ही इस युग की साहित्यिक चेतना के सूत्रधार थे।

 प्रमुख कवि- इस काल के प्रमुख कवि श्री अयोध्या सिंह उपाध्यायहरिऔध’, रामचरित उपाध्याय, नाथूराम शंकर, रामनरेश त्रिपाठी, मैथिलीशरण गुप्त, सत्यनारायणकविरत्नआदि हैं

 प्रमुख प्रवृत्तियां - द्विवेदी युगीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियां निम्नलिखित हैं-

(1)  देश भक्ति की कविता- इस युग के प्रत्येक कवि ने देशभक्ति के संबंध में लिखा। भारतेंदु युग की कविता देश प्रेम, भाषा, वेश और भोजन तक सीमित थी। अब इस युग में इसकी परिधि बढ़ गई है। इस युग की कविता में राष्ट्रीय भावना जातीयता पर आधारित थी। इस समय राष्ट्रीय जागरण एक प्रकार से हिंदू जागरण था। इस जागरण में इतिहास और परंपरा का अवलंबन था। वास्तव में इस काल के कवियों ने इतिहास के गौरव और महत्वपूर्ण परंपराओं की काव्य रचना की, उदाहरण के लिए मैथिलीशरण गुप्त केसाकेत’, ‘भारत-भारती’, अयोध्या सिंह उपाध्याय काप्रियप्रवास’, सत्यनारायणकविरत्नकाभ्रमरगीतआदि में देशभक्ति का स्वर सुना जा सकता है। इन कवियों ने तत्कालीन समाज की दयनीय अवस्था पर करुणा व्यक्त की है और अतीत को याद करते हुए वर्तमान समाज को जगाने का प्रयास किया है। इस युग में कवियों में देशभक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। मैथिलीशरण गुप्त ने स्पष्ट कहा है- 

जिसको निज गौरव, न निज देश का अभिमान है। 

वह नर नहीं है, पशु निरा है और मृतक समान है।।

(2) धार्मिक भावना - इस युग की धार्मिक चेतना में पर्याप्त व्यापकता और विशुद्धता आई है। इस युग के कवियों का विश्वास है कि मानव प्रेम से ही ईश्वर प्राप्ति संभव है। कवियों ने ईश्वर की दिव्य शक्ति का अनुभव जन सेवा में ही किया है। ठाकुर गोपाल सिंहनेपालीके शब्दों में-

 “जग की सेवा करना ही, बस है सब स्वरों का सार।

 विश्व प्रेम के बंधन में ही, मुझको मिला मुक्ति का द्वार।।

(3) सुधारवादी दृष्टिकोण - द्विवेदी युगीन कविता सुधारवादी भावनाओं से परिपूर्ण है। इस युग के कवियों ने अनेक कुरीतियों का वर्णन करके अनेक सुधारवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किए हैं। इन कविताओं में बाल विवाह, विधवाओं की दयनीय दशा, शिक्षा प्रचार आदि भावनाओं की अभिव्यक्ति मिलती है। अनेक कवियों ने किसान, मजदूर, दलित और त्रस्त जन के दुख दर्द को भी व्यक्त किया है। यथा-

भारत लक्ष्मी पड़ी राक्षसों के बंधन में।

 सिंधु पार वह बिलख रही व्याकुल मन में।।

(4) सामाजिक चेतना - आधुनिक युगीन काव्य में समाज सुधार प्रमुख स्वर रहा है। इस युग में हर कवि ने समाज में व्याप्त बुराइयों पर अपनी लेखनी चलाई है। इसका प्रतिबिंब इस युग के काव्य में साफ दिखाई देता है। यहां समाज सुधार पर बराबर रचनाएं लिखी गई। श्रीधर पाठक ने विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन किया, नाथूराम शंकर शर्मा ने बाल विवाह पर व्यंग्य किये। दहेज प्रथा की आलोचना की गई।  मैथिलीशरण गुप्त ने अस्पृश्यता को समाप्त करने की वकालत की और समाज के पिछड़े वर्गों तथा किसानों के प्रति सहानुभूति प्रकट की।  इस प्रकार देश प्रेम की भावना तथा सामाजिक सुधार की प्रवृत्ति इस काल के काव्य की प्रमुख विशेषता है। इसलिए इस काल को पुनरुत्थान अथवा पुनर्जागरण काल की संज्ञा भी दी जाती है।

(5) युगबोध - इस काल के कवियों ने अपने युग की भावनाओं को आत्मसात करके अपने काव्य में प्रकट किया है। इन कवियों ने समाज सुधार, स्वदेश प्रेम, त्याग, वीरता आदि युगीन  भावनाओं को अपने काव्य में प्रकट किया है।  इस काल की कविता में उस युग की सामाजिक चेतना को सहज रूप से देखा जा सकता है। इस संदर्भ में मैथिलीशरण गुप्त की यह पंक्तियां देखते ही बनती हैं –

(Diwedi yugin kavay dhara ki pramukh visheshtayen)

 “एक-एक सौ-सौ  कंसों को ललकारो।

 मातृभूमि के ऊपर धन जीवन सब वारो।।

 (6) प्रकृति चित्रण - इस युग में प्रकृति का चित्रण तथ्यपूर्ण शैली में हुआ है। कवियों ने प्रकृति का अनेक रूपों में वर्णन किया है। श्रीधर पाठक ने कश्मीर की सुषमा का मनोरम चित्रण किया है-

प्रकृति जहां एकांत बैठी, निज रूप संवारति। 

पल-पल पलटति वेष, छनिक, छवि छिन्न- छिन्न धारति।।” 

(7) देश के अतीत गौरव व संस्कृति का वर्णन - इस युग के कवियों ने देश के अतीत के गौरव का पौराणिक और ऐतिहासिक संदर्भों द्वारा वर्णन किया है। हरिऔध, नाथूराम शंकर ने अपनी कविताओं में अतीत के गौरव का चित्र प्रस्तुत किया है। गुप्तजी ने अपने काव्य में भारतीय संस्कृति का उज्जवल रुख स्पष्ट किया है। गुप्तजी ने अपने काव्य में भारतीय संस्कृति के आदर्श पात्रों को प्रस्तुत कर के अतीत के गौरव और भारतीय संस्कृति की दयनीय अवस्था पर दुख व्यक्त करते हुए कहा है-

 “हम  कौन थे, क्या हो गए, और क्या होंगे अभी।

 आओ विचारे आज मिलकर ये समस्याएं सभी।।

(Diwedi yugin kavay dhara ki pramukh visheshtayen)

(8) अनुवाद की प्रवृत्ति - इस युग के कवियों में अनेक भाषाओं के काव्य का हिंदी में अनुवाद करने की प्रवृत्ति भी दिखलाई पड़ती है। अनेक ग्रंथों का हिंदी-काव्य में अनुवाद किया गया है। गुप्त ने माइकल सुदन केमेघनाथ वधतथाविरहिणी ब्रजांगनाका अनुवाद किया। इस प्रकार श्रीधर पाठक नेगोल्ड स्मिथकेहरमिटका अनुवादएकांतवासी योगीके नाम से किया। एक अन्य रचनाट्रैवलरनामक कविता काश्रांत पथिकके नाम से अनुवाद किया।

(9) इतिवृत्तात्मकता - इतिवृत्तात्मकता इस युग की एक अन्य प्रमुख विशेषता है। इतिवृत्त का अर्थ है - वृतांत या वर्णन। इस युग के कवियों ने आदर्श को प्रतिस्थापित करने और नैतिकता के प्रचार के लिए इसी पद्धति को अपनाया। वास्तव में यह वर्णन प्रधान शैली है।

 (10) काव्य रूपों में विविधता - इस युग के कवियों ने प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार के रचना की है। प्रबंध क्षेत्र में उन्हें अधिक सफलता मिली है।प्रियप्रवास’, ‘वैदेही वनवास’, ‘साकेततथारामचरित चिंतामणिइस युग के महत्वपूर्ण प्रबंध काव्य हैं। उनके अतिरिक्तजयद्रथ वध’, ‘पंचवटी’, ‘पथिक स्वपन’, खंडकाव्य भी लिखे गए। गीत और मुक्तक काव्य भी रचे गए किंतु सफलता प्रबंध काव्य को ही मिली।

(11) भाषा छंद और अलंकार - भाषा की दृष्टि से द्विवेदी युग सुधारवादी युग माना जाता है। अब ब्रजभाषा का स्थान खड़ी बोली ने ले लिया था। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा सुधार का कार्य किया और खड़ी बोली को स्वतंत्र व्याकरण सम्मत और परिमार्जित किया। उधर मैथिलीशरण गुप्त ने खड़ी बोली को साहित्यिक भाषा बनाया। इस युग में निश्चय ही खड़ी बोली अपना रूप सुधारकर भाषा बन गई और अलंकार के क्षेत्र में भी परिवर्तन हुआ। रोला, लावणी, हरिगीतिका, सरसी आदि छंदों का खूब प्रयोग हुआ। अलंकारों की दृष्टि से भी यह काव्य  अत्यंत समृद्ध माना जाता है। 

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