Header Ads Widget

Chaitanya Mahaprabhu/Bhaktikaal/Harinam Sankirtan/Life of Chaitanya Mahaprabhu/चैतन्य महाप्रभु का जीवन परिचय /हरिनाम संकीर्तन/चैतन्य महाप्रभु जयन्ती-28 मार्च 2021

 Chaitanya Mahaprabhu/Bhaktikaal/Harinam Sankirtan/Life of Chaitanya Mahaprabhu in hindi/चैतन्य महाप्रभु का जीवन परिचय /हरिनाम संकीर्तन/ Chaitanya Mahaprabhu jayanti
 

चैतन्य महाप्रभु भारतीय संत परम्परा के वैष्णव धर्म के भक्ति योग के परम प्रचारक एवं भक्तिकाल के प्रमुख कवियों में से एक हैं, वे एक महान् संत, समाज सुधारक एवं क्रांतिकारी प्रचारक थे। इन्होंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारशिला रखी, भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्म दिया तथा राजनैतिक अस्थिरता के दिनों में हिंदू-मुस्लिम एकता की सद्भावना को बल दिया, जाति-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की शिक्षा दी तथा सच बात तो यह है कि तब लगभग विलुप्त हो चुके वृंदावन को चैतन्य महाप्रभु ने ही नये सिरे से बसाया। अगर उनके चरण वहां न पड़े होते तो श्रीकृष्ण-कन्हाई की यह लीला भूमि, किल्लोल-भूमि केवल एक मिथक बन कर ही रह जाती।

सम्पूर्ण मानव जाति को एक सूत्र में पिरोने के लिये हरिनाम ‘संकीर्तन’ आन्दोलन शुरू किया। वे जन सागर में उतरे एवं फिर जन सागर उनकी ओर उमड़ पड़ा। एक महान् आध्यात्मिक आन्दोलनकारी संत के रूप में उनकी विशेषता थी वे धर्म समभाव, करुणा, एकता, प्रेम, भक्ति, शांति एवं अहिंसा की भावना को जन-जन केे हृदय में सम्प्रेषित एवं संचारित किया। वे नगर-नगर, गांव-गांव घूम कर भक्ति एवं संकीर्तन का महत्व समझाते हुए लोगों का हृदय- परिवर्तन करते रहे। उनके इस भक्ति-आन्दोलन ने धर्म, जाति, सम्प्रदाय या देश के भेदभाव से दूर असंख्य लोगों को संकीर्तन रस की अनुभूति करायी और उनका जीवन सुख, शांति, सौहार्द एवं प्रेम से ओतप्रोत हो, ऐसा अपूर्व वातावरण निर्मित किया। भारत की उज्ज्वल गौरवमयी संत परंपरा में सर्वाधिक समर्पित एवं विनम्र संत थे।

चैतन्य महाप्रभु भक्ति रस संस्कृति के प्रेरक एवं उन्नायक संवेदनशील एवं भावुक संत हैं। समस्त प्राणी जगत प्रेम से भर जाए, श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन हो जाए और उनकी आध्यात्मिकता सरस हो उठे, ऐसी विलक्षण एवं अद्भुत है श्री राधा-कृष्ण के सम्मिलित रूप अवतार की संकीर्तन रसधार एवं श्री चैतन्य की जीवनशैली। इसी के माध्यम से उन्होंने प्रेम एवं भक्ति को सर्वोत्तम पुरुषार्थ घोषित कर मानव धर्म की श्रेष्ठता को प्रतिपादित किया। उनकी शिक्षाएं श्रीकृष्ण की ही शिक्षाओं का मूर्त रूप है। उन्होंने मानव कल्याण के लिये कहा, ‘प्रेम धर्म नहीं जीवन का सार तत्व हैं।’

चैतन्य महाप्रभु का जन्म संवत 1407 में फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सिंह लगन में होलिका दहन के दिन भारत के बंग प्रदेश के नवद्वीप नामक गांव में हुआ। वे बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। इनके द्वारा की गई लीलाओं एवं श्रीकृष्ण रूप देखकर हर कोई हैरान हो जाता था। उनके बचपन का नाम निमाई था। बहुत कम उम्र में ही निमाई न्याय व व्याकरण में पारंगत हो गए थे। इन्होंने कुछ समय तक नादिया में स्कूल स्थापित करके अध्यापन कार्य भी किया। निमाई बाल्यावस्था से ही भगवद् चिंतन में लीन रहकर श्रीराम व श्रीकृष्ण का स्तुति गान करने लगे थे। 15-16 वर्ष की अवस्था में इनका विवाह लक्ष्मीप्रिया के साथ हुआ। सन् 1505 में सर्प दंश से पत्नी की मृत्यु हो गई। वंश चलाने की विवशता के कारण इनका दूसरा विवाह नवद्वीप के राजपंडित सनातन की पुत्री विष्णुप्रिया के साथ हुआ। उनको अपनी माता की सुरक्षा के लिए चैबीस वर्ष की अवस्था तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना पड़ा।

 (Chaitanya Mahaprabhu/Bhaktikaal/Harinam Sankirtan/Life of Chaitanya Mahaprabhu/चैतन्य महाप्रभु का जीवन परिचय /हरिनाम संकीर्तन)

चैतन्य महाप्रभु ने जीवन में अनेक जन-कल्याणकारी कार्य किये। विशेषकर विधवाओं के कल्याण एवं जीवन उद्धार के लिये उन्होंने एक विशिष्ट उपक्रम किया। बंगाल एवं देश की विधवाओं को वृंदावन आकर प्रभु भक्ति के रास्ते पर आने को प्रेरित किया था। उन्हीं की देन है कि वृंदावन को करीब 500 वर्ष से विधवाओं के आश्रय स्थल के तौर पर जाना जाता है। कान्हा के चरणों में जीवन की अंतिम सांसें गुजारने की इच्छा लेकर देशभर से यहां जो विधवाएं आती हैं, उनमें ज्यादातर करीब 90 फीसद बंगाली हैं। अधिकतर अनपढ़ और बांग्लाभाषी। महाप्रभु ने बंगाल की विधवाओं की दयनीय दशा और सामाजिक तिरस्कार को देखते हुए उनके शेष जीवन को प्रभु भक्ति की ओर मोड़ा और इसके बाद ही उनके वृंदावन आने की परंपरा शुरू हो गई।

चैतन्य महाप्रभु को भगवान श्रीकृष्ण का ही रूप माना जाता है तथा इस संबंध में एक प्रसंग भी आता है कि एक दिन श्री जगन्नाथजी के घर एक ब्राह्मण अतिथि के रूप में आए। जब वह भोजन करने के लिए बैठे और उन्होंने अपने इष्टदेव का ध्यान करते हुए नेत्र बंद किए तो बालक निमाई ने झट से आकर भोजन का एक ग्रास उठाकर खा लिया। जिस पर माता-पिता को पुत्र पर बड़ा क्रोध आया और उन्होंने  निमाई को घर से बाहर भेज दिया और अतिथि के लिए निरंतर दो बार फिर भोजन परोसा परंतु निमाई ने हर बार भोजन का ग्रास खा लिया और तब उन्होंने गोपाल वेश में दर्शन देकर अपने माता-पिता और अतिथि को प्रसन्न किया।

चैतन्य महाप्रभु और उनके भक्त भजन-संकीर्तन में ऐसे लीन और भाव-विभोर हो जाते थे कि उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती थी। प्रेम, आस्था और रूदन का यह अलौकिक दृश्य हर किसी को स्तब्ध कर देता था। श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति एवं समर्पण ने चैतन्य महाप्रभु की प्रतिष्ठा को और भी बढ़ा दिया। उड़ीसा के सूर्यवंशी सम्राट गजपति महाराज प्रताप रुद्रदेव तो उनको अवतार तक मानकर उनके चरणों में गिर गये जबकि बंगाल के एक शासक का मंत्री रूपगोस्वामी तो अपना पद त्यागकर उनके शरणागत हो गया था। गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के आदि-आचार्य माने जाने वाले चैतन्य महाप्रभु ने अनेक ग्रंथों की रचना की, लेकिन आज आठ श्लोक वाले शिक्षाष्टक के सिवा कुछ नहीं है। शिक्षाष्टक में वे कहते हैं कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र देव हैं। वे मूर्तिमान सौन्दर्य, प्रेमपरक हैं। उनकी तीन शक्तियाँ परम ब्रह्म, माया और विलास हैं। इस श्लोक का सार है कि प्रेम तभी मिलता है जब भक्त तृण से भी अधिक नम्र होकर, वृक्ष से भी अधिक सहनशील होकर, स्वयं निराभिमानी होकर, दूसरों को मान देकर, शुद्ध मन से नित्य ‘हरि नाम’ का कीर्तन करे और ईश्वर से ‘जीवों के प्रति प्रेम’ के अलावा अन्य किसी वस्तु की कामना न करे। उन्होंने मानव द्वारा स्वयं को ईश्वर मानने की भूल को भी सुधारने का प्रयत्न किया। वे नारद की भक्ति से प्रभावित थे और उन्हीं की तरह कृष्ण-कृष्ण जपते थे। लेकिन गौरांग पर बहुत ग्रंथ लिखे गए, जिनमें प्रमुख है श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी का चैतन्य चरितामृत, श्रीवृंदावन दास ठाकुर का चैतन्य भागवत, लोचनदास ठाकुर का चैतन्य मंगल, चैतन्य चरितामृत, श्री चैतन्य भागवत, श्री चैतन्य मंगल, अमिय निमाई चरित और चैतन्य शतक आदि।

चैतन्य महाप्रभु ईश्वर को एक मानते हंै। उन्होंने नवद्वीप से अपने छह प्रमुख अनुयायियों को वृंदावन भेजकर वहां सप्त देवालयों की स्थापना करायी। उनके प्रमुख अनुयायियों में गोपाल भट्ट गोस्वामी बहुत कम उम्र में ही उनसे जुड़ गये थे। रघुनाथ भट्ट गोस्वामी, रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी, जीव गोस्वामी, रघुनाथ दास गोस्वामी आदि उनके करीबी भक्त थे। इन लोगों ने ही वृंदावन में सप्त देवालयों की स्थापना की। मौजूदा समय में इन्हें गोविंददेव मंदिर, गोपीनाथ मंदिर, मदन मोहन मंदिर, राधा रमण मंदिर, राधा दामोदर मंदिर, राधा श्यामसुंदर मंदिर और गोकुलानंद मंदिर आदि कहा जाता है। इन्हें सप्तदेवालय के नाम से ही पहचाना जाता है। वृंदावन में आज श्रीकृष्ण भक्ति एवं अध्यात्म की गंगा प्रवहमान है, उसका श्रेय महाप्रभु को ही जाता है।

चैतन्य मत का मूल आधार प्रेम और लीला है। गोलोक में श्रीकृष्ण की लीला शाश्वत है। प्रेम उनकी मूल शक्ति है और वही आनन्द का कारण भी है। यही प्रेम भक्त के चित्त में स्थित होकर महाभाव बन जाता है। यह महाभाव ही राधा की उपासना के साथ ही कृष्ण की प्राप्ति का मार्ग भी है। उनकी प्रेम, भक्ति और सहअस्तित्व की विलक्षण विशेषताएं युग-युगों तक मानवता को प्रेरित करती रहेगी। संकीर्तन-भक्ति रस के माध्यम से समाज को दिशा देने वाले श्रेष्ठ समाज सुधारक, धर्मक्रांति के प्रेरक और परम संत को उनके जन्म दिवस पर न केवल भारतवासी बल्कि सम्पूर्ण मानवता उनके प्रति श्रद्धासुमन समर्पित कर गौरव की अनुभूति कर रहा है।


Chaitanya Mahaprabhu/Bhaktikaal/Harinam Sankirtan/Life of Chaitanya Mahaprabhu in hindi/चैतन्य महाप्रभु का जीवन परिचय /हरिनाम संकीर्तन/ Chaitanya Mahaprabhu jayanti

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

close