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आधुनिक हिंदी कविता की विभिन्न काव्य धाराओं का संक्षिप्त परिचय |
आधुनिक हिंदी कविता की विभिन्न काव्य धाराओं का संक्षिप्त परिचय दीजिए-
हिंदी काव्य में आधुनिक युग का प्रवर्तन भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतेंदु का आना हिंदी कविता में एक युगांतर प्रस्तुत करता है। किसी योग्य को ‘साहित्यिक पुनरुत्थान’, ‘ राष्ट्रीय चेतना परक काव्य-परंपरा’ एवं ‘आदर्श-काव्य’ का युग कहा जा सकता है। इससे पूर्व हिंदी में रीतिकालीन काव्य धारा प्रवाहमान थी। रीतिकाल काव्यधारा की प्रमुख विशेषताएं श्रृंगार को प्रधानता, लक्षण ग्रंथों का निर्माण तथा अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के प्रयास इत्यादि थी। इस कविता का जनता के सुख-दुख से कोई संबंध नहीं था। सन 1857 के उपरांत एवं विकास प्रधान कविता की समाप्ति हो गई। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में देश में एक नई चेतना उत्पन्न कर दी थी। अंग्रेजी सरकार के शासन और शिक्षा से छुटकारा पाने के लिए भारत वासियों ने प्रयास आरंभ कर दिए थे। जीवन में होने वाले परिवर्तन के साथ काव्य में भी परिवर्तन होने लगे। कविता रूपी सरिता पुरानी रूढ़ियों को तोड़कर स्वच्छंद रूप से बहने लगी।
संपूर्ण आधुनिक हिंदी काव्यधारा को 6 भागों में विभाजित किया जा सकता है-
1.
भारतेंदु युग (1857 से 1900)
2.
द्विवेदी युग (1900 से 1920)
3.
छायावादी युग (1920 से 1935)
4.
प्रगतिवादी युग (1935 से 1943)
5.
प्रयोगवादी युग/नई
कविता (1943 से 1960)
6. साठोतरी या समकालीन कविता (1960 से आज तक)
आधुनिक हिंदी काव्यधारा की प्रमुख विशेषताओं का भी इन्हीं छह भागों के आधार पर विश्लेषण किया जा सकता है।
(Adhunik hindi kavita ki vibhinn kavay dharaon ka parichay/आधुनिक हिंदी कविता की विभिन्न काव्य धाराओं का संक्षिप्त परिचय)
(1) भारतेंदु युग - भारतेंदु युग को आधुनिक हिंदी-काव्य का आरंभ माना जाता है। इस काल में
आधुनिक काव्य रूपी नदी अबाध रूप से बहने लगी थी। भारतेंदु ने हिंदी कविता में
जन-सामान्य के जीवन के सुख-दुख को अभिव्यक्ति प्रदान की। इस प्रकार कविता जनजीवन
के समीप आई। इस युग के अन्य प्रमुख कवि बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’, प्रताप नारायण मिश्र। ठाकुर
जगमोहन सिंह आदि थे। इसी युग की कविता में प्राचीन और नवीन युग की काव्य
प्रवृत्तियों का मिला-जुला स्वरूप दिखाई पड़ता है। इस युग में भक्ति भावना।
रीतिकालीन श्रृंगार-भावना के साथ-साथ राष्ट्रीयता, सामाजिक
चेतना, प्रकृति चित्रण आदि आधुनिक काव्यगत विशेषताएं दिखाई
देती है।
इस युग की कविता का महत्व इस बात से भी है कि इसमें देश और जनता की भावनाओं तथा समस्याओं को पहली बार अभिव्यक्ति मिली। इस काल के कवियों ने देश की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक दशा के करूण चित्र प्रस्तुत किए। समाज सुधार का स्वर इनमें प्रबल है। भारतेंदु और उनके युग के अन्य कवियों ने अतीत के सांस्कृतिक गौरव का चित्र प्रस्तुत करके लोगों में आत्मसम्मान की भावना भरने का प्रयत्न किया। इस युग का काव्य अपने युग की समस्याओं और आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति है। इस युग में काव्य की भाषा ब्रज थी।
(2) द्विवेदी युग - सन 1900 में ‘सरस्वती’ के प्रकाशन के साथ द्विवेदी युग का आरंभ होता है। यह खड़ी बोली के आंदोलन का युग है। महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, मैथिलीशरण गुप्त आदि के प्रयत्नों से काव्य में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली का सफलतापूर्वक प्रयोग होने लगा। इस युग को आदर्शवादी काव्य परंपरा युग भी कह सकते हैं। यह काव्य युग भारतेंदु कालीन प्रवृत्तियों का विकास काल कहा जा सकता है। श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सियारामशरण गुप्त आदि की कृतियों में राष्ट्रीयता, समाज सुधार, भारत का गौरव गान तथा देश में नवजागरण का स्वर सुना जा सकता है। इस युग में उपदेशात्मक तथा वर्णन प्रधान इतिवृत्तात्मक कविता की ही प्रधानता थी। जिसका मुख्य उदेश्य धर्म और नैतिकता का उपदेश था। इस युग की धार्मिक तथा देश प्रेम की भावना भारतेंदु युग से अधिक उदार और व्यापक है। कविता की विविध विधाओं का विकास जैसे महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तक, प्रगीत आदि इस युग में दिखाई पड़ते हैं। ‘साकेत’ और ‘प्रियप्रवास’ इस युग के दो प्रतिनिधि महाकाव्य हैं। दिन में द्विवेदीयुगीन भाव, भाषा, छंद आदि सभी प्रवृतियां प्राप्त हो जाती हैं।
(3) छायावादी युग - द्विवेदी युग के उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक कविता की प्रतिक्रिया स्वरूप छायावादी कविता का विकास हुआ। प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी वर्मा तथा डॉ रामकुमार वर्मा इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि हैं। हिंदी की आधुनिक कविता में छायावादी कविता को सर्वश्रेष्ठ माना जा सकता है। यह काव्य आधुनिक युग का स्वर्ण-काव्य है। इस काव्य में वैयक्तिकता की प्रधानता है। प्रकृति सौंदर्य के चित्रण में प्रकृति के प्रति कवियों का आकर्षण और प्रेम व्यक्त होता है और कहीं-कहीं प्रकृति के भीतर विराट को भी इन कवियों ने अनुभव किया है। इस कविता में श्रृंगार की प्रधानता है, परंतु यह श्रृंगार रीतिकालीन श्रृंगार भावना से भिन्न है। छायावादी काव्य भाषा अलंकृत और मुक्त छंद विधान की दृष्टि से भी अनुपम है। ‘कामायनी’, ‘पल्लव’, ‘परिमल’ तथा ‘यामा’ छायावादी युग की प्रतिनिधि रचनाएं हैं।
(4) प्रगतिवादी युग - छायावादी कविता व्यष्टिमूलक थी, इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदी में प्रगतिवादी युग का आरंभ हुआ। राजनीति के क्षेत्र में जो मार्क्सवाद है, साहित्य के क्षेत्र में उसे प्रगतिवाद की संज्ञा दी जाती है। मार्क्सवाद का लक्ष्य समाज में साम्यवादी व्यवस्था स्थापित करना है और अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह हिंसात्मक क्रांति को साधन के रूप में स्वीकार करता है। पंत, निराला, दिनकर, नरेंद्र शर्मा, नागार्जुन, अंचल, मिलिंद, नवीन आदि कवियों ने शोषकों के प्रति घृणा, शोषितों के प्रति सहानुभूति, सामाजिक समता के प्रति आग्रह, रूढ़ियों का विरोध, क्रांति की भावना की आवश्यकता पर बल देकर प्रगतिवादी साहित्य की रचना की है। प्रगतिवादी कविता आध्यात्मिक मूल्यों का निषेध करके भौतिक मूल्यों की स्थापना करती है। वस्तुत इस कविता में वाद का अंश अधिक है, काव्य का कम। एक कविता प्रचारात्मक अधिक है, कवित्व की दृष्टि से इसका मूल्य अधिक नहीं है।
(Adhunik hindi kavita ki vibhinn kavay dharaon ka parichay/आधुनिक हिंदी कविता की विभिन्न काव्य धाराओं का संक्षिप्त परिचय)
(5) प्रयोगवादी युग-नई कविता - सन 1943 के आसपास छायावादी कविता के प्रति अन्य प्रतिक्रिया प्रयोगवादी काव्यधारा के रूप में प्रकट हुई। इस कविता में छायावादी व्यक्तिकता को ह्रदय के धरातल पर ग्रहण न करके बौद्धिक धरातल पर ग्रहण किया गया है। 1943 में हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के संपादकत्व में सात कवियों की कविताओं का संग्रह ‘तार सप्तक’ प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त कुछ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से प्रयोगवादी कविता का विकास हुआ। 1953 के उपरांत ‘नई कविता’ के नाम से प्रयोगवादी काव्यधारा का विकसित रूप प्राप्त होता है। नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह ‘वाद’ से सर्वदा मुक्त है। नई कविता शुद्ध साहित्यिक वाद है। इस कविता में वस्तु-पक्ष में निराशा, वेदना, नास्तिकता, आस्था, विश्वास, हास्य-व्यंग्य, यथार्थ-चित्रण, व्यक्तिवाद, आदि विरोधाभासी प्रतीत होने वाली प्रवृत्तियाँ हैं और शिल्प पक्ष में नए उपमानों, नए प्रतीकों, नए बिंब-विधान, मुक्त-छंद आदि की ओर कवि का झुकाव दिखाई देता है।
(6) साठोत्तरी या समकालीन कविता - सन 1960-62 के बाद हिंदी काव्य जगत में अनेक आंदोलन चले। समकालीन कविता, नई कविता के अनेक आंदोलनों में से एक महत्वपूर्ण आंदोलन है। इससे पूर्व इस काल की कविता को अनेक नाम दिए गए, जैसे सनातन सूर्योदयी कविता, अपरंपरावादी कविता, सीमांतक कविता, अस्वीकृत कविता, कबीरपंथी कविता, नूतन कविताएं, अकविता, नाटकीय कविता आदि। समकालीन कविता का कथ्य यथार्थ पर आधारित है और इसमें स्पष्ट तथा सपाट बयानी है। इसमें परंपरा के प्रति विशेष विद्रोह है और शिल्पगत विशेषता भी देखने को मिलती है। समकालीन कविता के कवियों में धूमिल, मुक्तिबोध, लीलाधर जगूड़ी, कुमारेंद्र, केदारनाथ सिंह, कुमार विकल, वेणुगोपाल, बलदेव वंशी, विष्णु खरे, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, विष्णु चंद्र शर्मा, आलोक धन्वा, श्रीराम वर्मा, मनोज सोनकर आदि के नाम गिनाए जा सकते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि
आधुनिक कविता समय के परिवर्तन के साथ-साथ अनेक मोड काटती हुई निरंतर आगे बढ़ रही
है। भारतेंदु और द्विवेदी युग में जहां राष्ट्रीय भावना, समाज
सुधार, देशप्रेम के गीत गाए गए वहां छायावाद में आकर कविता
वैयक्तिक भावनाओं को अभिव्यक्त करने में लीन हो गई। इसमें कवि ने व्यक्तिगत
सुख-दुख का खुलकर वर्णन किया। प्रगतिवादी कवि ने समाज में समानता उत्पन्न करने के
लिए क्रांति का आह्वान किया। प्रयोगवादी कवि वस्तु और शिल्प को लेकर नए-नए प्रयोग
करने में लीन रहा। अतः आधुनिक कविता विभिन्न प्रवृत्तियों को समेटे हुए आगे बढ़
रही है।
(Adhunik hindi kavita ki vibhinn kavay dharaon ka parichay/आधुनिक हिंदी कविता की विभिन्न काव्य धाराओं का संक्षिप्त परिचय)
Bhartendu yug/diwedi yug/chayawaadi yug/prayogwadi yug/nai kavita/samkalin kavita/
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