एक
बार की बात कहता हूँ। मित्र बाजार गए तो थे कोई एक मामूली चीज लेने पर लौटे तो
एकदम बहुत से बंडल पास थे।
मैंने
कहा – यह
क्या?
बोले
– यह
जो साथ थी।
उनका
आशय था कि यह पत्नी की महिमा है। उस महिमा का मैं कायल हूँ। आदिकाल से इस विषय में
पति से पत्नी की ही प्रमुखता प्रमाणित है और यह व्यक्तित्व का प्रश्न नहीं
स्त्रीत्व का प्रश्न है। स्त्री माया न जोड़े, तो क्या मैं जोडूँ? फिर भी सच सच है और वह
यह कि इस बात में पत्नी की ओट ली जाती है। मूल में एक और तत्व की महिमा सविशेष है।
वह तत्व है मनीबैग, अर्थात
पैसे की गर्मी या एनर्जी।
पैसा
पावर है। पर उसके सबूत में आस-पास माल-टाल न जमा हो तो क्या वह खाक पावर है! पैसे
को देखने के लिए बैंक-हिसाब देखिए, पर माल-असबाब मकान कोठी
तो अनदेखे भी दीखते हैं। पैसे की उस ‘परचेसिंग पावर’ के प्रयोग में ही पावर
का रस है।
लेकिन
नहीं। लोग संयमी भी होते हैं। वे फिजूल सामान को फिजूल समझते हैं। वे पैसा बहाते
नहीं हैं और बुद्धिमान होते हैं। बुद्धि और संयमपूर्वक वह पैसे को जोड़ते जाते हैं, जोड़ते जाते हैं। वह
पैसे की पावर को इतना निश्चय समझते हैं कि उसके प्रयोग की परीक्षा उन्हें दरकार
नहीं। बस खुद पैसे के जुड़ा होने पर उनका मन गर्व से भरा फूला रहता है।
मैंने
कहा – यह
कितना सामान ले आए!
मित्र
ने सामने मनीबैग फैला दिया, कहा
– यह
देखिए। सब उड़ गया, अब
जो रेल-टिकट के लिए भी बचा हो!
मैंने
तब तय माना कि और पैसा होता और सामान आता। वह सामान जरूरत की तरफ देखकर नहीं आया, अपनी ‘परचेसिंग पावर’ के अनुपात में आया है ।
लेकिन
ठहरिए। इस सिलसिले में एक और भी महत्व का तत्व है, जिसे नहीं भूलना चाहिए।
उसका भी इस करतब में बहुत-कुछ हाथ है। वह तत्त्व है, बाजार ।
मैंने
कहा – यह
इतना कुछ नाहक ले आए!
मित्र
बोले – कुछ
न पूछो। बाजार है कि शैतान का जाल है? ऐसा सजा-सजाकर माल रखते
हैं कि बेहया ही हो जो न फंसे ।
मैंने
मन में कहा, ठीक।
बाजार आमंत्रित करता है कि आओ मुझे लूटो और लूटो। सब भूल जाओ, मुझे देखो। मेरा रूप और
किसके लिए है? मैं
तुम्हारे लिए हूँ। नहीं कुछ चाहते हो, तो भी देखने में क्या
हरज़ है। अजी आओ भी। इस आमंत्रण में यह खूबी है कि आग्रह नहीं है आग्रह तिरस्कार
जगाता है। लेकिन ऊंचे बाजार का आमंत्रण मूक होता है और उससे चाह जगती है। चाह मतलब
अभाव। चौक बाजार में खड़े होकर आदमी को लगने लगता है कि उसके अपने पास काफी नहीं
है और चाहिए, और
चाहिए। मेरे यहाँ कितना परिमित है और यहाँ कितना अतुलित है, ओह!
कोई
अपने को न जाने तो बाजार का यह चौक उसे कामना से विकल बना छोड़े। विकल क्यों, पागल। असंतोष, तृष्णा और ईर्ष्या से
घायल कर मनुष्य को सदा के लिए यह बेकार बना डाल सकता है ।
एक
और मित्र की बात है। यह दोपहर के पहले के गए-गए बाजार से कहीं शाम को वापिस आए। आए
तो खाली हाथ!
मैंने
पूछा – कहाँ
रहे?
बोले
– बाजार
देखते रहे ।
मैंने
कहा – बाजार
को देखते क्या रहे?
बोले
– क्यों? बाजार!
तब
मैंने कहा – लाए
तो कुछ नहीं ।
बोले
– हाँ
पर यह समझ न आता था कि न लूं तो क्या? सभी कुछ तो लेने को जी
होता था। कुछ लेने का मतलब था शेष सब-कुछ को छोड़ देना। पर मैं कुछ भी नहीं छोड़ना
चाहता था। इससे मैं कुछ भी नहीं ले सका ।
मैंने
कहा – खूब
।
पर
मित्र की बात ठीक थी। अगर ठीक पता नहीं है कि क्या चाहते हो तो सब ओर की चाह
तुम्हें घेर लेगी। और तब परिणाम त्रास ही होगा, गति नहीं होगी, न कर्म ।
बाजार
में एक जादू है। वह जादू आँख की राह काम करता है। वह रूप का जादू है। पर जैसे
चुंबक का जादू लोहे पर ही चलता है, वैसे ही इस जादू की भी
मर्यादा है। जेब भरी हो, और
मन खाली हो, ऐसी
हालत में जादू का असर खूब होता है। जेब खाली हो पर मन भरा न हो, तो भी जादू चल जाएगा। मन
खाली है तो बाजार की अनेकानेक चीजों का निमंत्रण उस तक पहुंच जाएगा। कहीं हुई उस
वक्त जेब भरी तब तो फिर वह मन किसकी मानने वाला है! मालूम होता है यह भी लूँ, वह भी लूँ। सभी सामान
जरूरी है और आराम को बढ़ाने वाला मालूम होता है। पर यह सब जादू का असर है। जादू की
सवारी उतरी कि पता चलता है कि फैंसी चीजों की बहुतायत आराम में मदद नहीं देती, बल्कि खलल ही डालती है।
थोड़ी देर को स्वाभिमान को जरूर सेंक मिल जाता है पर इससे अभिमान की गिल्टी की और
खुराक ही मिलती है। जकड़ रेशमी डोरी की हो तो रेशम के स्पर्श के मुलायम के कारण
क्या वह कम जकड़ होगी?
पर
उस जादू की जकड़ से बचने का एक सीधा सा उपाय है। वह यह कि बाजार जाओ तो खाली मन न
हो। मन खाली हो, तब
बाजार न जाओ। कहते हैं लू में जाना हो तो पानी पीकर जाना चाहिए। पानी भीतर हो, लू का लूपन व्यर्थ हो
जाता है। मन लक्ष्य में भरा हो तो बाजार भी फैला-का-फैला ही रह जाएगा। तब वह घाव
बिल्कुल नहीं दे सकेगा, बल्कि
कुछ आनंद ही देगा। तब बाजार तुमसे कृतार्थ होगा, क्योंकि तुम कुछ-न-कुछ
सच्चा लाभ उसे दोगे। बाजार की असली कृतार्थता है आवश्यकता के समय काम आना ।
यहाँ
एक अंतर चिन्ह लेना बहुत जरूरी है। मन खाली नहीं रहना चाहिए, इसका मतलब यह नहीं कि
वह मन बंद रहना चाहिए। जो बंद हो जाएगा, वह शून्य हो जाएगा। शून्य
होने का अधिकार बस परमात्मा का है जो सनातन भाव से संपूर्ण है। शेष सब अपूर्ण है। इससे
मन बंद नहीं रह सकता। सब इच्छाओं का निरोध कर लोगे, यह झूठ है और अगर ‘इच्छा निरोधस्तप:’ का ऐसा ही नकारात्मक
अर्थ हो तो वह तप झूठ है। वैसे तप की रहा रेगिस्तान को जाती होगी मोक्ष की रहा वह
नहीं है। ठाठ देकर मन को बंद कर रखना जड़ता है। लोभ का यह जीतना नहीं है कि जहां
लोभ होता है, यानी
मन में, वहां
नकार हो! यह तो लोभ की ही जीत है और आदमी की हार। आँख अपनी फोटो डाली, तब लोभनीय के दर्शन से
बचे तो क्या हुआ? ऐसे
क्या लोभ मिट जाएगा? और
कौन कहता है कि आंख फूटने पर रूप दिखना बंद हो जाएगा? क्या आंख बंद करके ही
हम सपने नहीं लेते हैं? और
वे सपने क्या चैन-भंग नहीं करते हैं? इससे मन को बंद कर
डालने की कोशिश तो अच्छी नहीं। वह अकारथ है यह तो हठ वाला योग है। शायद हठ-ही-हठ
है, योग
नहीं है। इससे मन कृश भले हो जाए और पीला और अशक्त जैसे विद्वान का ज्ञान। वह
मुक्त ऐसे नहीं होता। इससे वह व्यापक की जगह संकीर्ण और विराट की जगह क्षुद्र होता
है। इसलिए उसका रोम-रोम मूंदकर बंद तो मन को करना नहीं चाहिए। वह मन पूर्ण कब है? हम में पूर्णता होती तो
परमात्मा से अभिन्न हम महाशून्य ही न होते? अपूर्ण हैं, इसी से हम हैं। सच्चा
ज्ञान सदा इसी अपूर्णता के बोध को हम में गहरा करता है। सच्चा कर्म सदा इस
अपूर्णता की स्वीकृति के साथ होता है। अतः उपाय कोई वही हो सकता है जो बलात मन को
रोकने को न कहे, जो
मन को भी इसलिए सुने क्योंकि वह अप्रयोजनीय रूप में हमें नहीं प्राप्त हुआ है। हाँ, मनमानेपन की छूट मन को
न हो, क्योंकि
वह अखिल का अंग है, खुद
कुल नहीं है ।
पड़ोस
में एक महानुभाव रहते हैं जिनको लोग भगत जी कहते हैं। चूरन बेचते हैं। यह काम करते, जाने उन्हें कितने बरस
हो गए हैं। लेकिन किसी एक दिन भी चूरन से उन्होंने छह आने पैसे से ज्यादा नहीं
कमाए। चूरन उनका आसपास सरनाम है। और खुद खूब लोकप्रिय हैं। कहीं व्यवसाय का गुर
पकड़ लेते और उस पर चलते तो आज खुशहाल क्या मालामाल होते! क्या कुछ उनके पास न
होता ! इधर दस वर्षों से मैं देख रहा हूँ, उनका चूरन हाथों-हाथ
बिक जाता है। पर वह न उसे थोक देते हैं, न व्यापारियों को बेचते
हैं। पेशगी आर्डर कोई नहीं लेते। बंधे वक्त पर अपनी चूरन की पेटी लेकर घर से बाहर
हुए नहीं कि देखते-देखते छह आने की कमाई उनकी हो जाती है। लोग उनका चूरन लेने को
उत्सुक जो रहते हैं। चूरन से भी अधिक शायद वह भगत जी के प्रति अपनी सद्भावना का
देय देने को उत्सुक रहते हैं। पर छह आने पूरे हुए नहीं की भगत जी बाकी चूरन बालकों
को मुफ्त बांट देते हैं। कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई उन्हें पच्चीसवां पैसा भी दे सके।
कभी चूरन में लापरवाही नहीं हुई है और कभी रोग होता भी मैंने उन्हें नहीं देखा है ।
और
तो नहीं लेकिन इतना मुझे निश्चय मालूम होता है कि इन चूरन वाले भगत जी पर बाजार का
जादू नहीं चल सकता ।
कहीं
आप भूल न कर बैठिएगा। इन पंक्तियों को लिखने वाला मैं चूरन नहीं बेचता हूँ। जी
नहीं, ऐसे
हल्की बात भी न सोचिएगा। यह समझिएगा कि लेख के किसी भी मान्य पाठक से उस चूरन वाले
को श्रेष्ठ बताने की मैं हिम्मत कर सकता हूँ। क्या जाने उस भले आदमी को अक्षर
ज्ञान तक भी है या नहीं। और बड़ी बातें तो उसे मालूम क्या होंगी। और हम-आप न जाने
कितनी बड़ी-बड़ी बातें जानते हैं। इससे यह तो हो सकता है कि वह चूरन वाला भगत हम
लोगों के सामने एकदम नाचीज आदमी हो। लेकिन आप पाठकों की विद्वान श्रेणी का सदस्य
होकर भी मैं यह स्वीकार नहीं करना चाहता हूं कि उस अपदार्थ प्राणी को वह प्राप्त
है जो हम में से बहुत कम को शायद प्राप्त है। उस पर बाजार का जादू वार नहीं कर
पाता। माल बिछा रहता है, और
उसका मन अडिग रहता है। पैसा उससे आगे होकर भीख तक मांगता है कि मुझे लो। लेकिन
उसके मन में पैसे पर दया नहीं समाती। वह निर्मम व्यक्ति पैसे को अपने आहत गर्व में
बिलखता ही छोड़ देता है। ऐसे आदमी के आगे क्या पैसे की व्यंग्य शक्ति कुछ भी चलती
होगी? क्या
वह शक्ति कुंठित होकर सलज्ज ही न हो जाती होगी?
पैसे
की व्यंग्य-शक्ति की सुनिए। वह दारुण है। मैं पैदल चल रहा हूँ कि पास ही धूल
उड़ाती निकल गई मोटर। वह क्या निकली मेरे कलेजे को कौन्धती एक कठिन व्यंग्य की लीक
ही आर-से-पार हो गई। जैसे किसी ने आंखों में उंगली देकर दिखा दिया हो कि देखो, उसका नाम है मोटर, और तुम उस से वंचित हो!
यह मुझे अपनी ऐसी विडंबना मालूम होती है कि बस पूछिए नहीं। मैं सोचने को हो आता
हूँ कि हाय, ये
ही माँ-बाप रह गए थे जिनके यहां में जन्म लेने को था! क्यों न मैं मोटर वालों के
यहां हुआ! उस व्यंग्य में इतनी शक्ति है कि जरा में मुझे अपने सगों के प्रति
कृतघ्न कर सकती है ।
लेकिन
क्या लोकवैभव की यह व्यंग्य-शक्ति उस चूरन वाले अकिंचित्कर मनुष्य के आगे चूर-चूर
होकर ही नहीं रह जाती? चूर-चूर
क्यों, कहो
पानी-पानी ।
तो
वह क्या बल है जो इस तीखे व्यंग्य के आगे भी अजेय ही नहीं रहता, बल्कि मानो उस व्यंग्य
की क्रूरता को ही पिघला देता है?
उस
बल को नाम जो दो ; पर
वह निश्चय उस तल की वस्तु नहीं है जहां पर संसारी वैभव फलता-फूलता है। वह कुछ अपर
जाति का तत्त्व है। लोग स्प्रिचुअल कहते हैं ; आत्मिक, धार्मिक, नैतिक कहते हैं। मुझे
योग्यता नहीं कि मैं उन शब्दों में अंतर देखूं और प्रतिपादन करूं। मुझे शब्द से
सरोकार नहीं। मैं विद्वान नहीं कि शब्दों पर अटकूँ। लेकिन इतना तो है कि जहां
तृष्णा है, बटोर
रखने की स्पृहा है, वहां
उस बल का बीज नहीं है। बल्कि यदि उसी बल को सच्चा बल मानकर बात की जाए तो कहना
होगा कि संचय की तृष्णा और वैभव की चाह में व्यक्ति की निर्बलता ही प्रमाणित होती
है। निर्बल ही धन की ओर झुकता है। वह अबलता है। वह मनुष्य पर धन की और चेतन पर जड़
की विजय है ।
एक
बार चूरन वाले भगत जी बाजार चौक में दीख गए। मुझे देखते ही उन्होंने जय-जयराम किया।
मैंने भी जयराम कहा। उनकी आंखें बंद नहीं थी और न उस समय वह बाजार को किसी भांति
कोस रहे मालूम होते थे। राह में बहुत लोग, बहुत बालक मिले जो भगत
जी द्वारा पहचाने जाने के इच्छुक थे। भगत जी ने सब को ही हंसकर पहचाना। सबका
अभिवादन लिया और सबको अभिवादन किया। इससे तनिक भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि
चौक-बाजार में होकर उनकी आंखें किसी से भी कम खुली थी। लेकिन बहुत भौंचक्के हो
रहने की लाचारी उन्हें नहीं थी। व्यवहार में पसोपेश उन्हें नहीं था और खोए-से खड़े
नहीं वह रह जाते थे। भांति भांति के बढ़िया माल से चौक भरा पड़ा है। उस सब के
प्रति अप्रीति इस भगत के मन में नहीं है। जैसे उस समूचे माल के प्रति भी उनके मन
में आशीर्वाद हो सकता है। विद्रोह नहीं, प्रसन्नता ही भीतर है, क्योंकि कोई रिक्त भीतर
नहीं है। देखता हूँ कि खुली आंख, पुष्ट और मग्न, वह चौक-बाजार में से
चलते चले जाते हैं। राह में बड़े-बड़े फैंसी स्टोर पड़ते हैं, पर पड़े रह जाते हैं। कहीं
भगत नहीं रुकते। रुकते हैं तो एक छोटी पंसारी की दुकान पर रुकते हैं। वहां दो-चार
अपने काम की चीज ली, और
चले आते हैं। बाजार से हठपूर्वक विमुखता उनमें नहीं है ; लेकिन अगर उन्हें जीरा
और काला नमक चाहिए तो सारे चौक-बाजार की सत्ता उनके लिए तभी तक है, तभी तक उपयोगी है, जब तक वहां जीरा मिलता
है। जरूरत-भर जीरा वहां से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के
बराबर हो जाता है। वह जानते हैं कि जो उन्हें चाहिए वह है जीरा नमक। बस इस निश्चित
प्रतीति के बल पर शेष सब चांदनी चौक का आमंत्रण उन पर व्यर्थ होकर बिखरा रहता है। चौक
की चांदनी दाएं-बाएं भूखी-की-भूखी फैली रह जाती है ; क्योंकि भगत जी को जीरा
चाहिए वह तो कोने वाली पंसारी की दुकान से मिल जाता है और वहां से सहज भाव में ले
लिया गया है। इसके आगे आस-पास अगर चांदनी बिछी रहती है तो बड़ी खुशी से बिछी रहे, भगत जी से बेचारी का
कल्याण ही चाहते हैं ।
यहां
मुझे ज्ञात होता है कि बाजार को सार्थकता भी वही मनुष्य देता है जो जानता है कि वह
क्या चाहता है। और जो नहीं जानते कि वे क्या चाहते हैं, अपनी ‘परचेसिंग पावर’ के गर्व में अपने पैसे
से केवल एक विनाशक शक्ति-शैतानी शक्ति, व्यंग्य की शक्ति ही
बाजार को देते हैं। न तो वे बाजार से लाभ उठा सकते हैं, न उस बाजार को सच्चा
लाभ दे सकते हैं। वे लोग बाजार का बाजारुपन बढ़ाते हैं। जिसका मतलब है कि कपट
बढ़ाते हैं। कपट की बढ़ती का अर्थ परस्पर में सद्भाव की घटी। इस सद्भाव के ह्रास
पर आदमी आपस में भाई-भाई और सुहृद और पड़ोसी फिर रह ही नहीं जाते हैं और आपस में
कोरे गाहक और बेचक की तरह व्यवहार करते हैं। मानो दोनों एक दूसरे को ठगने की घात
में हों। एक की हानि में दूसरे का अपना लाभ दीखता है और यह बाजार का, बल्कि इतिहास का ; सत्य माना जाता है ऐसे
बाजार को बीच में लेकर लोगों में आवश्यकताओं का आदान-प्रदान नहीं होता ; बल्कि शोषण होने लगता
है तब कपट सफल होता है, निष्कपट
शिकार होता है। ऐसे बाजार मानवता के लिए विडंबना हैं और जो ऐसे बाजार का पोषण करता
है, जो
उसका शास्त्र बना हुआ है ; वह
अर्थशास्त्र सरासर औंधा है वह मायावी शास्त्र है वह अर्थशास्त्र अनीतिशास्त्र है ।
अभ्यास के प्रश्न ( बाजार दर्शन : जैनेंद्र कुमार )
बाजार का जादू चढ़ने और उतरने पर
मनुष्य पर क्या-क्या असर पड़ता है?
उत्तर — बाजार का जादू चढ़ने पर
मनुष्य को बाजार की प्रत्येक वस्तु आकर्षक और उपयोगी लगने लगती है और वह खरीददारी
करता चला जाता है। ऐसी अवस्था में वह अनेक अनावश्यक वस्तुएं खरीद लेता है परंतु जब
बाजार का जादू उतरता है तो उसे पता चलता है कि जो वस्तुएं उसने अपनी सुख-सुविधा के
लिए खरीदी थी, वह
तो उसके आराम में खलल उत्पन्न कर रही हैं ।
बाजार में भगत जी के व्यक्तित्व
का कौन सा सशक्त पहलू उभर कर आता है? क्या आपकी नजर में उनका आचरण
समाज में शांति स्थापित करने में मददगार हो सकता है?
उत्तर — बाजार में भगत जी का
संयमी स्वभाव उभरकर सामने आता है। भगत जी भव्य बाजार में चारों ओर सब कुछ देखते
हुए चलते हैं लेकिन वह बाजार के चकाचौंध कर देने वाले आकर्षण से भी आकृष्ट नहीं
होते। बाजार में सजी हुई वस्तुओं के प्रति वे तटस्थ भाव रखते हैं। वे बाजार में से
वही वस्तु खरीदते हैं जिसकी उन्हें जरूरत होती है, किसी वस्तु के बाहरी
आकर्षण से आकृष्ट होकर वे किसी वस्तु को नहीं खरीदते। अगर उन्हें बाजार से जीरा और
काला नमक खरीदना है तो वह केवल उसी दुकान पर जाते हैं जहां से उन्हें यह वस्तुएं
मिलती हैं, बाकी
सारा बाजार उनके लिए व्यर्थ है ।
भगत
जी का आचरण निश्चित रूप से समाज में शांति स्थापित करने में मददगार सिद्ध हो सकता
है। अनावश्यक वस्तुएं खरीदने से परिवार पर आर्थिक बोझ पड़ता है। समाज में लोग एक
दूसरे की नकल करते हैं, इससे
दूसरे लोगों में भी उसी प्रकार की वस्तुओं को खरीदने की होड़ लग जाती है। लोगों
में आपसी ईर्ष्या बढ़ती है, भ्रष्टाचार
को बढ़ावा मिलता है। अनावश्यक रूप से खरीदारी करने पर बाजार में महंगाई बढ़ती है
और सामान्य व्यक्ति को दैनिक जीवन की आवश्यक वस्तुएं भी नहीं मिल पाती। सच तो यह
है कि भगत जी जैसे लोग ही बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं ।
‘बाजारूपन’ से क्या तात्पर्य है ? किस प्रकार के व्यक्ति बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं अथवा बाजार
की सार्थकता किसमें है?
उत्तर — बाजारूपन का अर्थ है – एक दूसरे को लूटने की
प्रवृत्ति। जब बाजार में खरीददारी आवश्यकता के अनुरूप नहीं बल्कि अपने अहंकार की
तुष्टि के लिए की जाने लगे तो ऐसी स्थिति में ग्राहक और विक्रेता दोनों में
एक-दूसरे को ठगने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। तब ग्राहक और विक्रेता में सद्भाव
घटता है और आपसी द्वेष बढ़ता है। यह प्रवृत्ति बाजार को निरर्थकता प्रदान करती है ।
भगत
जी जैसे संयमी लोग बाजार को सार्थकता प्रदान करते हैं क्योंकि वे बाजार से वही
वस्तु खरीदते हैं जो उसके लिए उपयोगी होती हैं। बाजार की सार्थकता भी इसी बात में
है कि वह जरूरतमंद व्यक्ति की जरूरतों को पूरा करे ।
बाजार किसी का लिंग, जाति, धर्म या क्षेत्र नहीं देखता? वह देखता है सिर्फ उसकी
क्रय-शक्ति को। इस रूप में वह एक प्रकार से सामाजिक-समता की भी रचना कर रहा है। आप इससे कहां तक सहमत हैं?
उत्तर — यह कथन सही है कि बाजार किसी भी व्यक्ति का लिंग, जाति, धर्म अथवा क्षेत्र नहीं
देखता, वह
केवल उसकी क्रय-शक्ति को देखता है। बाजार सवर्ण या अवर्ण में कोई भेदभाव नहीं करता।
बाजार के लिए हर-व्यक्ति एक ग्राहक है, उस ग्राहक की जाति क्या
है इससे उसे कोई मतलब नहीं। इस दृष्टि से बाजार निश्चित रूप से सामाजिक-समता की
रचना करता है क्योंकि बाजार के समक्ष चाहे ब्राह्मण हो या शूद्र , हिंदू हो, मुसलमान हो या इसाई ; सभी बराबर हैं। इस
संदर्भ में सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की पंक्तियां याद आती
हैं –
“माफ करना साहब
मेरे लिए ना कोई छोटा है ना कोई बड़ा है
मेरे लिए हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है । ”
आप अपने तथा समाज से कुछ ऐसे
प्रसंग का उल्लेख करें –
(क ) जब पैसा शक्ति के परिचायक के रूप में प्रतीत हुआ ।
(ख ) जब पैसे की शक्ति काम नहीं आई ।
उत्तर — वर्तमान समय में पैसा
बहुत अधिक महत्वपूर्ण हो गया है । हमारे जीवन में ऐसे बहुत से पल आते हैं जब पैसा
हमारी बड़ी-बड़ी समस्याओं का निराकरण कर देता है लेकिन कई बार ऐसा समय भी आता है
जब पैसे की शक्ति काम नहीं करती ।
(क
) कहने के लिए तो रोजगार योग्यता के आधार पर मिलता है परंतु धनी लोग पैसे के बल पर
रोजगार प्राप्त कर जाते हैं। वे पैसे के बल पर न्यूनतम योग्यताएं हासिल कर लेते
हैं, प्रतियोगी
परीक्षा पास कर लेते हैं और साक्षात्कार में अच्छे अंक लेकर बड़े-बड़े प्रशासनिक
पदों पर चयनित हो जाते हैं। केवल सरकारी नौकरी की ही बात नहीं है, धनी लोग धन के बल पर
बड़े-बड़े कारोबार कर सकते हैं, उद्योग स्थापित कर सकते हैं और
पढ़े-लिखे शिक्षित लोगों को अपने अधीन रोजगार प्रदान कर सकते हैं ।
(ख
) कई बार जीवन में ऐसे पल भी आते हैं जब पैसे की शक्ति काम नहीं करती। विशेष तौर
पर व्यावहारिक आचरण और नैतिक जीवन में पैसा अधिक महत्व नहीं रखता। बहुत से धनी लोग
पैसे के बल पर अपने बेटे को ऊंची से ऊंची शिक्षा तो दिला देते हैं लेकिन उसे नैतिक
मूल्य नहीं सिखा सकते। ऐसे बच्चे बड़े होकर अपने मां-बाप के साथ ऐसा अशोभनीय
व्यवहार करते हैं कि उन धनी मां-बाप को अपना जीवन नर्क के समान प्रतीत होने लगता
है और वे झोपड़ी में रहने वाले उन गरीब मां-बाप को अपने से बेहतर समझने लगते हैं
जिनके बच्चे उनका सम्मान करते हैं ।
बाजार दर्शन ( जैनेंद्र कुमार )
निबंध का प्रतिपाद्य / मूल भाव / उद्देश्य या संदेश स्पष्ट करें। अथवा
‘बाजार दर्शन’ के नामकरण की सार्थकता का विवेचन
करें ।
उत्तर — प्रस्तुत निबंध का
मुख्य विषय बाजार का सूक्ष्म विवेचन करना है। प्रस्तुत पाठ में बाजार के अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, आवश्यकता व उपयोगिता पर
प्रकाश डाला गया है। बाजार में जाकर ग्राहक केवल बाजार से ही प्रभावित नहीं होता
बल्कि ग्राहक को प्रभावित करने वाले कुछ ऐसे तत्व भी होते हैं जो ग्राहक से संबंध
रखते हैं, जैसे
– ग्राहक
का व्यक्तित्व, उसकी
परचेसिंग पावर आदि। जो व्यक्ति असंयमी और ईर्ष्यालु स्वभाव का होता है, वह प्रायः बाजार के
आकर्षण से प्रभावित हो जाता है और बाजार से अनावश्यक वस्तुएं खरीद लेता है। बाजार
का जादू उस पर खूब काम करता है। बाजार की प्रत्येक वस्तु उसे आकर्षक तथा उपयोगी
लगती है। यहां तक कि जो वस्तुएं उसके पास पहले से मौजूद हैं वे वस्तुएं भी अब उसे
पुरानी लगने लगती हैं। इसके विपरीत संयमी व्यक्तित्व वाला व्यक्ति बाजार के आकर्षण
से आकर्षित नहीं होता। वह बाजार से वही वस्तु खरीदता है जिसकी उसे आवश्यकता होती है
।
इस
प्रकार ग्राहक को आकर्षित करने वाले बाजार के तत्व, बाजार से प्रभावित होने
वाले ग्राहक की विशेषताएं आदि बता कर लेखक ने बाजार की सार्थकता को स्पष्ट किया है।
यही प्रस्तुत निबंध का मुख्य उद्देश्य या संदेश भी कहा जा सकता है। क्योंकि
प्रस्तुत निबंध में बाजार की व्यवस्था का विवेचन किया गया है, अत: निबंध का नाम ‘बाजार दर्शन’ सर्वथा उपयुक्त प्रतीत
होता है।
0 टिप्पणियाँ